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hindi vyAkaran_हिंदी व्याकरण - 13

चौथा अध्याय - क्रिया / कामताप्रसाद गुरू

187. जिस विकारी शब्द के प्रयोग से हम किसी वस्तु के विषय में कुछ विधान करते हैं, उसे क्रिया कहते हैं; 
जैसेμ‘हरिण भागा’, 
‘राजा नगर में आए’, 
‘मैं जाऊँगा’, 
‘घास हरी होती है’। 
पहले वाक्य में हरिण के विषय में ‘भागा’ शब्द के द्वारा विधान किया गया है इसलिए ‘भागा’ शब्द क्रिया है। इसी प्रकार दूसरे वाक्य में ‘आए’, तीसरे वाक्य में ‘जाऊँगा’ और चैथे वाक्य में ‘होती है’ शब्द से विधान किया गया है; इसलिए ‘आए’, ‘जाऊँगा’ और ‘होती है’ शब्द क्रिया है। 

188. जिस मूल शब्द में विकार होने से क्रिया बनती है, उसे धातु कहते हैं; 
जैसेμ‘भागा’ क्रिया में ‘आ’ प्रत्यय है, जो ‘भाग’ मूल शब्द में लगा है; इसलिए ‘भागा’ 112 ध् हिंदी व्याकरण क्रिया का धातु ‘भाग’ है। इसी तरह ‘आए’ क्रिया का धातु ‘आ’, ‘जाऊँगा’ क्रिया का धातु ‘जा’ और ‘होती है’ क्रिया का धातु ‘हो’ है। 
(अ) धातु के अंत में ‘ना’ जोड़ने से जो शब्द बनता है उसे क्रिया का साधारण रूप कहते हैं, जैसेμ‘भाग-ना, आ-ना, जा-ना, हो-ना’ इत्यादि। कोई कोई भूल से इसी साधारण रूप को धातु कहते हैं। कोश में भाग, आ, जा, हो इत्यादि धातुओं के बदले क्रिया के साधारण रूप, भागना, आना, जाना, होना इत्यादि लिखने की चाल है। 
(आ) क्रिया का साधारण रूप क्रिया नहीं है; क्योंकि उसके उपयोग से हम किसी वस्तु के विषय में विधान नहीं कर सकते है। विधिकाल के रूप को छोड़कर क्रिया के साधारण रूप का प्रयोग संज्ञा के समान होता। कोई कोई इसे क्रियार्थक संज्ञा कहते हैं; यह क्रियार्थक संज्ञा भाववाचक संज्ञा के अंतर्गत है। उदाहरणμ‘पढ़ना एक गुण है।’ ‘मैं पढ़ना सीखता हूँ।’ ‘छुट्टी में अपना पाठ पढ़ना।’ अंतिम वाक्य में ‘पढ़ना’ क्रिया (विधिकाल में) है। 
(इ) कई एक धातुओं का प्रयोग भी भाववाचक संज्ञा के समान होता है; जैसेμ‘हम नाच नहीं देखते।’ ‘आज घोड़ों की दौड़ हुई।’ ‘तुम्हारी जाँच ठीक नहीं निकली।’ 
(ई) किसी वस्तु के विषय में विधान करनेवाले शब्दों को क्रिया इसलिए कहते हैं कि अधिकांश धातु जिनसे ये शब्द बनते हैं, क्रियावाचक हैं; जैसेμपढ़, लिख, उठ, बैठ, चल, फेंक, काट इत्यादि; कोई कोई धातु स्थितिदर्शक हैं; जैसेμसो, गिर, मर, हो इत्यादि और कोई कोई विकारदर्शक हैं; जैसेμबन, दिख, निकल इत्यादि। (टी.μक्रिया के जो लक्षण हिंदी व्याकरणों में दिए गए हैं, उनमें से प्रायः सभी लक्षणों में क्रिया के अर्थ का विचार किया गया है; जैसेμ‘क्रिया काम को कहते हैं। अर्थात् जिस शब्द से करने अथवा होने का अर्थ किसी काल, पुरुष और वचन के साथ पाया जाय।’ (भाषाप्रभाकर)। व्याकरण में शब्दों के लक्षण और वर्गीकरण के लिए उनके रूप और प्रयोग के साथ कभी कभी अर्थ का भी विचार किया जाता है; परंतु केवल अर्थ के अनुसार लक्षण करने से विवेचन में गड़बड़ी होती है। यदि क्रिया के लक्षण में केवल ‘करना’ या ‘होना’ का विचार किया जाय तो ‘जाना’, ‘जाता हुआ’, ‘जानेवाला’ आदि शब्दों को भी ‘क्रिया’ कहना पड़ेगा। भाषाप्रभाकर में दिए हुए लक्षण में जो काल, पुरुष और वचन की विशेषता बताई गई है, वह क्रिया का असाधारण धर्म नहीं है और वह लक्षण एक प्रकार का वर्णन है। क्रिया का जो लक्षण यहाँ लिखा गया है उस पर भी यह आक्षेप हो सकता है कि कोई कोई क्रियाएँ अकेली विधान नहीं कर सकतींμजैसेμ‘राजा दयालु है।’ ‘पक्षी घोंसले बनाते हैं।’ इन उदाहरणों में ‘है’ और ‘बनाते हैं’ क्रियाएँ अकेली विधान नहीं कर सकतीं। इनके साथ क्रमशः ‘दयालु’ और ‘घोंसले’ शब्द रखने की आवश्यकता हुई है। इस आक्षेप का उत्तर यह है कि इन वाक्यों में ‘है’ और ‘बनाते हैं’ विधान करने वाले मुख्य शब्द हैं और उनके बिना काम नहीं चल सकता चाहे उनके साथ हिंदी व्याकरण ध् 113 कोई शब्द रहे या न रहे। क्रिया के साथ किसी दूसरे शब्द का रहना या न रहना उसके अर्थ की विशेषता है।) 

189. धातु मुख्यतः दो प्रकार के होते हैंμ(1) सकर्मक और (2) अकर्मक। 190. जिस धातु से सूचित होनेवाले व्यापार का फल कर्ता से निकलकर किसी दूसरी वस्तु पर पड़ता है, उसे सकर्मक धातु कहते हैं; जैसेμ‘सिपाही चोर को पकड़ता है।’ ‘नौकर चिट्ठी लाया।’ पहले वाक्य में ‘पकड़ता है’, क्रिया के व्यापार का फल ‘सिपाही’ कर्ता से निकलकर ‘चोर’ पर पड़ता है; इसलिए ‘पकड़ता है’ क्रिया (अथवा ‘पकड़’ धातु) सकर्मक है; दूसरे वाक्य में ‘लाया’ क्रिया (अथवा ‘ला’ धातु) सकर्मक है, क्योंकि उसका फल ‘नौकर’ कर्ता से निकलकर ‘चिट्ठी’ कर्म पर पड़ता है। (अ) कर्ता का अर्थ ‘करनेवाला’ है। क्रिया के व्यापार को करनेवाला (प्राणी वा पदार्थ) ‘कर्ता’ कहलाता है। जिस शब्द से इस करनेवाले का बोध होता है, उसे भी (व्याकरण में) ‘कर्ता’ कहते हैं, पर यथार्थ में शब्द कर्ता नहीं हो सकता। शब्द को कर्ताकारक अथवा कर्तृपद कहना चाहिए। जिन क्रियाओं से स्थिति वा विषय का बोध होता है उनका कर्ता वह पदार्थ है जिसकी स्थिति वा विकार के विषय में विधान किया जाता है, जैसेμ‘स्त्राी चतुर है।’ ‘ मंत्राी राजा हो गया।’ (आ) धातु से सूचित होनेवाले व्यापार का फल कर्ता से निकलकर जिस वस्तु पर पड़ता है, उसे कर्म कहते हैं; जैसेμ‘सिपाही चोर को पकड़ता है।’ ‘नौकर चिट्ठी लाया।’ पहले वाक्य में पकड़ता है’ क्रिया का फल कर्ता से निकलकर चोर पर पड़ता है, इसलिए ‘चोर’ कर्म है। दूसरे वाक्य में ‘लाया’ क्रिया का फल चिट्ठी पर पड़ता है; इसलिए ‘चिट्ठी’ कर्म है। ‘सकर्मक’ का अर्थ है ‘कर्म के सहित’ और कर्म के साथ आने ही से क्रिया ‘सकर्मक’ कहलाती है। 191. जिस धातु से सूचित होनेवाला व्यापार और उसका फल कर्ता ही पर पड़े उसे अकर्मक धातु कहते हैं; जैसेμ‘गाड़ी चली।’ ‘लड़का सोता है।’ पहले वाक्य में ‘चली’ क्रिया का व्यापार और उसका फल ‘गाड़ी’ कर्ता ही पर पड़ता है; इसलिए ‘चली’ क्रिया अकर्मक है। दूसरे वाक्य में ‘सोता है’ क्रिया भी अकर्मक है, क्योंकि उसका व्यापार और फल ‘लड़का’ कर्ता ही पर पड़ता है। ‘अकर्मक’ शब्द का अर्थ ‘कर्मरहित’ और कर्म के न होने से क्रिया ‘अकर्मक’ कहाती है। (अ) ‘लड़का अपने को सुधार रहा हैμइस वाक्य में यद्यपि क्रिया के व्यापार का फल कर्ता ही पर पड़ता है, तथापि ‘सुधार रहा है’ क्रिया सकर्मक है; क्योंकि इस क्रिया के कर्ता और कर्म एक ही व्यक्ति के वाचक होने पर भी अलग अलग शब्द हैं। इस वाक्य में ‘लड़का’ कर्ता और ‘अपने को’ कर्म है, यद्यपि ये दोनों शब्द एक ही व्यक्ति के वाचक हैं। 192. कोई कोई धातु प्रयोग के अनुसार सकर्मक और अकर्मक दोनों होते हैं; जैसेμखुजलाना, भरना, लजाना, भूलना, बदलना, ऐंठना, ललचाना, घबराना 114 ध् हिंदी व्याकरण इत्यादि। उदाहरणμ‘मेरे हाथ खुजलाते हैं।’ (अ.) (शकु.)। ‘उसका बदन खुजलाकर उसकी सेवा करने में उसने कोई कसर नहीं की।’ (स.)। (रघु.)। ‘खेल तमाशे की चीजें देखकर भोले भाले आदमियों का जी ललचाता है’ (अ)। (परी.)। ‘ब्राइट अपने असबाब की खरीदारी के लिए मदनमोहन को ललचाता है (स.)। तथा ‘बूँद-बूँद करके तालाब भरता है’ (अ.)। (कहा.)। ‘प्यारी ने आँखें भर के कहा’ (स.)। (शकु.) इनको उभयविध धातु कहते हैं। 193. जब सकर्मक क्रिया के व्यापार का फल किसी विशेष पदार्थ पर न पड़कर सभी पदार्थों पर पड़ता है, तब उसका कर्म प्रकट करने की आवश्यकता नहीं होती; जैसेμ‘ईश्वर की कृपा से बहरा सुनता है और गूँगा बोलता है।’ ‘इस पाठशाला में कितने लड़के पढ़ते हैं?’ 194. कुछ अकर्मक धातु ऐसे हैं, जिनका आशय कभी कभी अकेले कर्ता से पूर्णतया प्रकट नहीं होता। कर्ता के विषय में पूर्ण विधान होने के लिए इन धातुओं के साथ कोई संज्ञा या विशेषण आता है। इन क्रियाओं को अपूर्ण अकर्मक क्रिया कहते हैं और जो शब्द इनका आशय पूरा करने के लिए आते हैं उन्हें पूर्ति कहते हैं। ‘होता’, ‘रहना’, ‘बनना’, ‘दिखाना’, ‘निकलना’, ‘ठहरना’ इत्यादि अपूर्ण क्रियाएँ हैं। उदाहरणμ‘लड़का चतुर है।’ ‘साधु चोर निकला।’ ‘नौकर बीमार रहा। ‘आप मेरे मित्रा ठहरे।’ ‘यह मनुष्य विदेशी दिखता है।’ इन वाक्यों में ‘चतुर’, ‘चोर’, ‘बीमार’ आदि शब्द पूर्ति हैं। (अ) पदार्थों के स्वाभाविक धर्म और प्रकृति के नियमों को प्रकट करने के लिए बहुधा ‘है’ या ‘होता है’ क्रिया के साथ संज्ञा या विशेषण का उपयोग किया जाता है; जैसेμ‘सोना भारी धातु है।’ ‘घोड़ा चैपाया है।’ ‘चाँदी सफेद होती है।’ ‘हाथी के कान बड़े होते हैं।’ (आ) अपूर्ण क्रियाओं से साधारण अर्थ में पूरा आशय भी पाया जाता है; जैसेμ‘ईश्वर हैं’, ‘सबेरा हुआ’, ‘सूरज निकला’, ‘गाड़ी दिखाई देती है’ इत्यादि। (इ) सकर्मक क्रियाएँ भी एक प्रकार की अपूर्ण क्रियाएँ हैं; क्योंकि उनसे कर्म के बिना पूरा आशय नहीं पाया जाता। तथापि अपूर्ण अकर्मक और सकर्मक क्रियाओं में यह अंतर है कि अपूर्ण क्रिया की पूर्ति से उसके कर्ता ही की स्थिति वा विकार सूचित होता है और सकर्मक क्रिया की पूर्ति (कर्म) कर्ता से भिन्न होती है; जैसेμ‘ मन्त्राी राजा बन गया’, ‘मन्त्राी ने राजा को बुलाया।’ सकर्मक क्रिया की पूर्ति (कर्म) को बहुधा पूरक कहते हैं। 195. देना, बतलाना, कहना, सुनाना और इन्हीं अर्थों के दूसरे कई सकर्मक धातुओं के साथ दो-दो कर्म रहते हैं। एक कर्म से बहुधा पदार्थ का बोध होता है और उसे मुख्य कर्म कहते हैं, और दूसरा कर्म जो बहुधा प्राणिवाचक होता है, गौण कर्म कहलाता है; जैसेμ‘गुरु ने शिष्य को (गौण कर्म) पोथी (मुख्य कर्म) दी।’ ‘मैं तुम्हें उपाय बतलाता हूँ’ इत्यादि। हिंदी व्याकरण ध् 115 (अ) गौण कर्म कभी लुप्त रहता है; जैसेμ‘राजा ने दान दिया।’ ‘पंडित कथा सुनाते हैं।’ 196. कभी कभी करना, बनाना, समझना, पाना, मानना आदि सकर्मक धातुओं का आशय कर्म के रहते भी पूरा नहीं होता, इसलिए उनके साथ कोई संज्ञा या विशेषण पूर्ति के रूप में आता है; जैसेμ‘अहल्याबाई ने गंगाधर को अपना दीवान बनाया है।’ ‘मैंने चोर को साधु समझा।’ इन क्रियाओं को अपूर्ण सकर्मक क्रियाएँ कहते हैं और इनकी पूर्ति कर्मपूर्ति कहलाती है। इससे भिन्न अकर्मक अपूर्ण क्रिया की पूर्ति को उद्देश्यपूर्ति कहते हैं। (अ) साधारण अर्थ में सकर्मक अपूर्ण क्रियाओं को भी पूर्ति की आवश्यकता नहीं होती; जैसेμ‘कुम्हार घड़ा बनाता है।’ ‘लड़के पाठ समझते हैं।’ 197. किसी किसी अकर्मक और किसी किसी सकर्मक धातु के साथ उसी धातु से बनी हुई भाववाचक संज्ञा कर्म के समान प्रयुक्त होती है; जैसेμ‘लड़का अच्छी चाल चलता है।’ सिपाही कई लड़ाइयाँ लड़ा।’ ‘लड़कियाँ खेल खेल रही हैं।’ ‘पक्षी अनोखी बोली बोलते हैं।’ ‘किसान ने चोर को बड़ी मार मारी’ इस कर्म को सजातीय कर्म और क्रिया को सजातीय क्रिया कहते हैं। यौगिक धातु 198. व्युत्पत्ति के अनुसार धातुओं के दो भेद होते हैंμ(1) मूल धातु और (2) यौगिक धातु। 199. मूल धातु वे हैं जो किसी दूसरे शब्द से न बने हों; जैसेμकरना, बैठना, चलना, लेना। 200. जो धातु किसी दूसरे शब्द से बनाए जाते हैं, वे यौगिक धातु कहलाते हैं, जैसेμ‘चलना’ से ‘चलाना’, ‘रंग’ से ‘रँगना’, ‘चिकना’ के ‘चिकनाना’ इत्यादि।μ(अ) संयुक्त धातु यौगिक धातुओं का एक भेद है। (सू.μजो धातु हिंदी में मूल धातु माने जाते हैं उनमें बहुत से प्राकृत के द्वारा संस्कृत धातुओं से बने हैं; जैसेμसं.μकृ., प्रा.μकर, हिं.μकर। सं.μभू, प्रा.μहोहि. μहो। संस्कृत ‘अथवा’ प्राकृत के धातु चाहे यौगिक हों चाहे मूल, परंतु उनसे निकले हुए हिंदी धातु मूल ही माने जाते हैं, क्योंकि व्याकरण में दूसरी भाषा में आए हुए शब्दों की मूल व्युत्पत्ति का विचार नहीं किया जाता। यह विषय कोष का है। हिंदी ही के शब्दों से अथवा हिंदी प्रत्ययों के योग से जो धातु बनते हैं उन्हीं को, हिंदी में, यौगिक मानते हैं।) 201. यौगिक धातु तीन प्रकार से बनते हैंμ(1) धातु में प्रत्यय जोड़ने से सकर्मक तथा प्रेरणार्थक धातु बनते हैं, (2) दूसरे शब्दभेदों में प्रत्यय जोड़ने से नाम धातु बनते हैं और (3) एक धातु में एक या दो धातु जोड़ने से संयुक्त धातु बनते हैं। 116 ध् हिंदी व्याकरण (सू.μयद्यपि यौगिक धातुओं का विवेचन व्युपत्ति का विषय है तथापि सुभीते के लिए हम प्रेरणार्थक धातुओं का और नामधातुओं का विचार इसी अध्याय में और संयुक्त धातुओं का विचार क्रिया के रूपांतर प्रकरण में करेंगे।) प्रेरणार्थक धातु 202. मूल धातु के जिस विकृत रूप से क्रिया के व्यापार में कर्ता पर किसी की प्रेरणा समझी जाती है, उसे प्रेरणार्थक धातु कहते हैं; जैसेμ‘बाप लड़के से चिट्ठी लिखवाता है।’ इस वाक्य में मूल धातु ‘लिख’ का विकृत रूप ‘लिखवा’ है, जिससे जाना जाता है कि लड़का लिखने का व्यापार बाप की प्रेरणा से करता है; इसलिए ‘लिखवा’ प्रेरणार्थक धातु है और ‘बाप’ प्रेरक कर्ता तथा ‘लड़का’ प्रेरित कर्ता है। ‘मालिक नौकर से गाड़ी चलवाता है।’ इस वाक्य में ‘चलवाता है’ प्रेरणार्थक क्रिया, ‘मालिक’ प्रेरक कर्ता और ‘नौकर’ प्रेरित कर्ता है। 203. आना, जाना, सकना, होना, रुचना, पाना आदि धातुओं से अन्य प्रकार के धातु नहीं बनते। शेष सब धातुओं से दो दो प्रकार के प्रेरणार्थक धातु बनते हैं जिनके पहले रूप बहुधा सकर्मक क्रिया ही के अर्थ में आते हैं और दूसरे रूप में यथार्थ प्रेरणा समझी जाती है, जैसेμ‘ गिरता है’, ‘कारीगर घर गिराता है।’ ‘कारीगर नौकर से घर गिरवाता है।’ ‘लोग कथा सुनते हैं।’ ‘पंडित लोगों को कथा सुनाते हैं।’ ‘पंडित शिष्य से श्रोताओं को कथा सुनवाते हैं।’ (अ) सब प्रेरणार्थक क्रियाएँ सकर्मक होती हैं, जैसेμ दबी बिल्ली चूहों से कान कटाती है।’ ‘लड़के ने कपड़ा सिलवाया।’ पीना, खाना, देखना, समझना, देना, सुनना आदि क्रियाओं के दोनों प्रेरणार्थक रूप द्विकर्मक होते हैं, जैसेμ‘प्यासे को पानी पिलाओ।’ ‘बाप ने लड़के को कहानी सुनाई।’ ‘बच्चे को रोटी खिलवाओ।’ 204. प्रेरणार्थक क्रियाओं के बनाने के नियम नीचे दिए जाते हैंμ 1. मूल धातु के अंत में ‘आ’ जोड़ने से पहला प्रेरणार्थक और ‘वा’ जोड़ने से दूसरा प्रेरणार्थक बनता है, जैसेμ मू. धा. प. प्रे. दू. प्रेउठμना उठाμना उठवाμना औटμना औटाμना औटवाμना गिरμना गिराμना गिरवाμना चलμना चलाμना चलवाμना पढ़μना पढ़ाμना पढ़वाμना फैलμना फैलाμना फैलवाμना सुनμना सुनाμना सुनवाμना हिंदी व्याकरण ध् 117 (अ) दो अक्षरों के धातु में ‘ऐ’ वा ‘औ’ को छोड़कर आदि का अन्य दीर्घ स्वर Ðस्व हो जाता है, जैसेμ मू. धा. प. प्रे. दू. प्रेओढ़ ना उढ़ाना उढ़वाना जागना जगाना जगवाना जीतना जिताना जितवाना डूबना डुबाना डुबवाना बोलना बुलाना बुलवाना भींगना भिंगाना भिंगवाना लेटना लिटाना लिटवाना (1) ‘डूबना’ का रूप ‘डुबोना’ और ‘भींगना’ का रूप ‘भिगोना’ भी होता है। (2) प्रेरणार्थक रूपों में बोलना का अर्थ बदल जाता है। (अ) तीन अक्षर के धातु में पहले प्रेरणार्थक के दूसरे अक्षर का ‘अ’ अनुच्चारित रहता है; जैसेμ मू. धा. प. प्रे. दू. प्रेचमकμना चमकाμना चमकवाμना पिघलμना पिघलाμना पिघलवाμना बदलμना बदलाμना बदलवाμना समझμना समझाμना समझवाμना 2. एकाक्षरी धातु के अंत में ‘ला’ और ‘लवा’ लगाते हैं और दीर्घ स्वर Ðस्व कर देते हैं; जैसेμ खाना खिलाना खिलवाना छूना छुलाना छुलवाना देना दिलाना दिलवाना धोना धुलाना धुलवाना पीना पिलाना पिलवाना सीना सिलाना सिलवाना सोना सुलाना सुलवाना जीना जिलाना जिलवाना (अ) ‘खाना’ में आद्य स्वर ‘इ’ हो जाता है। इसका एक प्रेरणार्थक ‘खवाना’ भी है। ‘खिलाना’ अपने अर्थ के अनुसार ‘खिलना’ (फूलना) का भी सकर्मक रूप हो सकता है। (आ) कुछ सकर्मक धातुओं से केवल दूसरे प्रेरणार्थक रूप (1μअ नियम के अनुसार) बनते हैं; जैसेμगानाμगवाना, खेनाμखिवाना, खोनाμखोवाना, बोनाμबोआना, लेनाμलिवाना इत्यादि। 118 ध् हिंदी व्याकरण 3. कुछ धातुओं के प्रेरणार्थक रूप ‘ला’ अथवा ‘आ’ लगाने से बनते हैं परंतु दूसरे प्रेरणार्थक में ‘वा’ लगाया जाता है; जैसेμ कहना कहाना वा कहलाना कहवाना दिखना दिखाना वा दिखलाना दिखवाना सीखना सिखाना वा सिखलाना सिखवाना सूखना सुखाना वा सुखलाना सुखवाना बैठना बिठाना वा बिठलाना बिठवाना (अ) ‘कहना’ के पहले प्रेरणार्थक रूप अपूर्ण अकर्मक भी होते हैं; जैसेμ‘ऐसे ही सज्जन गं्रथकार कहलाते हैं।’ ‘विभक्ति’ सहित शब्द पद कहाता है।’ (आ) ‘कहलाना’ के अनुकरण पर दिखाना या दिखलाना को कुछ लेखक अकर्मक क्रिया के समान उपयोग में लाते हैं; जैसेμ‘बिना तुम्हारे यहाँ न कोई रक्षक अपना दिखलाता’ (क. क.)। यह प्रयोग अशुद्ध है। (इ) ‘कहवाना’ का रूप कहलवाना भी होता है। (ई) ‘बैठना’ के कई प्रेरणार्थक रूप होते हैंμजैसेμबैठाना, बैठालना, बिठालना, बैठवाना। 205. कुछ धातुओं से बने हुए दोनों प्रेरणार्थक रूप एकार्थी होते हैं; जैसेμ कटनाμकटाना वा कटवाना खुलनाμखुलाना वा खुलवाना गड़नाμगड़ाना वा गड़वाना देनाμदिलाना व दिलवाना बँधनाμबँधाना वा बँधवाना रखनाμरखाना वा रखवाना सिलनाμसिलाना वा सिलवाना 206. कोई कोई धातु स्वरूप में प्रेरणार्थक हैं, पर यथार्थ में वे मूल अकर्मक (वा सकर्मक) हैं; जैसेμकुम्हलाना, घबराना, मचलाना, इठलाना इत्यादि। (क) कुछ प्रेरणार्थक धातुओं के मूल रूप प्रचार में नहीं हैं; जैसेμ‘जताना (वा जतलाना) फुसलाना, गँवाना इत्यादि। 207. अकर्मक धातुओं से नीचे लिखे नियमों के अनुसार सकर्मक धातु बनते हैंμ 1. धातु में आद्य स्वर को दीर्घ करने से; जैसेμ कटनाμकाटना पिसनाμपीसना दबनाμदाबना लुटनाμलूटना बँधनाμबाँधना मरनाμमारना पिटनाμपीटना पटनाμपाटना (अ) ‘सिलना’ का सकर्मक रूप ‘सीना’ होता है। हिंदी व्याकरण ध् 119 2. तीन अक्षरों में धातु में दूसरे अक्षर का स्वर दीर्घ होता है; जैसेμ निकलनाμनिकालना उखड़नाμउखाड़ना सम्हलनाμसम्हालना बिगड़नाμबिगाड़ना 3. किसी किसी धातु के आद्य इ वा उ को गुण करने से; जैसेμ फिरनाμफेरना खुलनाμखोलना दिखनाμदेखना घुलनाμघोलना छिदनाμछेदना मुड़नाμमोड़ना 4. कई धातुओं के अंत्य ट के स्थान में ड़ हो जाता है; जैसेμ जुटनाμजोड़ना टूटनाμतोड़ना छूटनाμछोड़ना फटनाμफाड़ना फूटनाμफोड़ना (आ) ‘बिकना’ का सकर्मक ‘बेचना’ और ‘रहना’ का ‘रखना’ होता है। 208. कुछ धातुओं का सकर्मक और पहला प्रेरणार्थक रूप अलग-अलग होता है, और दोनों में अर्थ का अंतर रहता है; जैसेμ‘गड़ना’ का सकर्मक रूप गाड़ना, और पहला प्रेरणार्थक ‘गड़ाना’ है। गड़ाना का अर्थ ‘धरती के भीतर रखना’ है। ‘गाड़ना’ का अर्थ ‘चुभाना’ भी है। ऐसे ही ‘दाबना’ और ‘दबाना’ में अंतर है। नामधातु 209. धातु को छोड़ दूसरे शब्दों में प्रत्यय जोड़ने से जो धातु बनाए जाते हैं, उन्हें नामधातु कहते हैं। ये संज्ञा व विशेषण के अंत में ‘ना’ जोड़ने से बनते हैं। (अ) संस्कृत शब्दों से; जैसेμ उद्धारμउद्धारना, स्वीकारμस्वीकारना (व्यापार में ‘सकारना’), धिक्कार-धिकारना, अनुराग-अनुरागना इत्यादि। इस प्रकार के शब्द कभी-कभी कविता में आते हैं और ये शिष्टसम्मति से ही बनाए जाते हैं। (आ) अरबी, फारसी शब्दों से; जैसेμ गुजरμगुजरना खरीदμखरीदना बदलμबदलना दागμदागना खर्चμखर्चना आजमाμआजमाना फर्माμफर्माना इस प्रकार के शब्द अनुकरण से नए नहीं बनाए जा सकते। (इ) हिंदी शब्दों से (शब्द के अंत में ‘आ’ करके और आद्य ‘आ’ को Ðस्व करके); जैसेμ 120 ध् हिंदी व्याकरण दुखμदुखाना बातμबतियाना, बताना चिकनाμचिकनाना हाथμहथियाना अपनाμअपनाना पानीμपनियाना लाठीμलठियाना रिसμरिसाना बिलगμबिलगाना इस प्रकार के शब्दों का प्रचार अधिक नहीं है। इसके बदले बहुधा संयुक्त क्रियाओं का उपयोग होता है; जैसेμदुखानाμदुख देना, बतियानाμबात करना, अलगानाμअलग करना इत्यादि। 210. किसी पदार्थ की ध्वनि के अनुकरण पर जो धातु बनाए जाते हैं, उन्हें अनुकरणधातु कहते हैं। ये धातु ध्वनिसूचक शब्द के अंत में ‘आ’ करके ‘ना’ जोड़ने से बनते हैं; जैसेμ बड़बड़μबड़बड़ाना खटखट-खटखटाना थरथरμथरथराना टर्रμटर्राना मचमचμमचमचाना भनभनμभनभनाना (अ) नामधातु और अनुकरण धातु अकर्मक और सकर्मक दोनों होते हैं। ये धातु शिष्टसम्मति के बिना नहीं बनाए जाते। संयुक्त धातु (सू.μसंयुक्त धातु कुछ कृदंतों (धातु से बने हुए शब्दों) की सहायता से बनाए जाते हैं, इसलिए इसका विवेचन क्रिया के रूपांतर प्रकरण में किया जायगा।) (टी.μहिंदी व्याकरणों में प्रेरणार्थक धातुओं के संबंध में गड़बड़ी है। ‘हिंदी व्याकरण’ में स्वरांत धातुओं से सकर्मक बनाने का जो सर्वव्यापी नियम दिया है, उनमें कई अपवाद हैं; ‘बोआना’, ‘खोआना’, ‘गँवाना’, ‘लिखवाना’ इत्यादि। लेखक ने इनका विचार ही नहीं किया। फिर उसमें केवल ‘धुलना’, ‘चलना’ और ‘दबाना’ से दो दो सकर्मक रूप माने गए हैं; पर हिंदी में इस प्रकार के धातु अनेक हैं; जैसेμकटना, खुलना, गड़ना, लुटना, पिसना इत्यादि। यद्यपि इन धातुओं के दो दो सकर्मक रूप कहे जाते हैं, पर यथार्थ में एक रूप सकर्मक और दूसरा प्रेरणार्थक है; जैसेμघुलनाμघोलना, घुलाना, कटनाμकाटना; कटाना; पिसनाμपिसना इत्यादि। ‘भाषाभास्कर’ में इन दुहरे रूपों का नाम तक नहीं है। ‘बालबोध व्याकरण’ में कई एक प्रेरणार्थक क्रियाओं के जो रूप दिए गए हैं, वे हिंदी में प्रचलित नहीं हैं; जैसेμ‘सोलाना’ (सुलाना), ‘बोलवाना’ (बुलवाना), ‘बैठलाना’ (बिठवाना) इत्यादि। ‘भाषा चंद्रोदय’ में प्रेरणार्थक धातुओं को त्रिाकर्मक लिखा है; पर उनका जो एक उदाहरण दिया गया है, उसमें लेखक ने यह बात नहीं समझाई और न उसमें एक से अधिक कर्म ही पाए जाते हैं, जैसेμ‘देवदत्त यज्ञदत्त से पोथी लिखवाता है।’)

hindi vyAkaran_हिंदी व्याकरण - 12

तीसरा अध्याय - विशेषण / कामताप्रसाद गुरू


143. जिस विकारी शब्द से संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित होती है, उसे विशेषण कहते हैं, 
जैसेμबड़ा, काला; दयालु, भारी, एक, दो, सब। 
विशेषण के द्वारा जिस संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित होती है, उसे विशेष्य कहते हैं, 
जैसेμ‘काला घोड़ा’ वाक्यांश में ‘घोड़ा’ संज्ञा ‘काला’ विशेष्य है। 
‘बड़ा घर’ में ‘घर’ विशेष्य है। 
(टि.μ‘हिंदी व्याकरण’ में संज्ञा के तीन भेद किए गए हैंμनाम, सर्वनाम और विशेषण। 

दूसरे व्याकरणों में भी विशेषण संज्ञा का एक उपभेद माना गया है। इसलिए यहाँ यह प्रश्न है कि विशेषण एक प्रकार की संज्ञा है अथवा एक अलग शब्दभेद है। इस शंका का समाधान यह है कि सर्वनाम के समान विशेषण भी एक प्रकार की संज्ञा ही है; क्योंकि विशेषण भी वस्तु का अप्रत्यक्ष नाम है। पर इसको अलग शब्दभेद मानने का यह कारण है कि इसका उपयोग संज्ञा के बिना नहीं हो सकता और इससे संज्ञा का केवल धर्म सूचित होता है; ‘काला’ कहने से घोड़ा, कपड़ा, दाग, आदि किसी भी वस्तु के धर्म की भावना मन में उत्पन्न हो सकती है; परंतु उस धर्म का नाम ‘काला’ नहीं है; किंतु ‘कालापन’ है। जब विशेषण अकेला आता है, तब उससे पदार्थ का बोध होता है और उसे संज्ञा कहते हैं। उस समय उसमें संज्ञा के समान विकार भी होते हैं; जैसेμइसके बड़ों का यह संकल्प है’ (शकु.)। ‘भले भलाई पै लहहिं’ (राम.)! सब विशेषण विकारी शब्द नहीं हैं; परंतु विशेषणों का प्रयोग संज्ञाओं के समान हो सकता है, और उस समय इनमें रूपांतर होता है। इसलिए विशेषण को ‘विकारी शब्द’ कहना उचित है। इसके सिवा कोई-कोई लेखक संस्कृत की चाल पर विशेष्य के अनुसार विशेषण का भी रूपांतर करते हैं, जैसेμ‘ मूर्तिमती यह सुंदरता है।’ (क.क.)। ‘पुरवासिनी स्त्रिायाँ’ (रघु.)। विशेषण संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित करता हैμइस उक्ति का अर्थ यह है कि विशेषणरहित संज्ञा से जितनी वस्तुओं का बोध होता है, उनकी संख्या विशेषण के योग से कम हो जाती है। ‘घोड़ा’ शब्द से जितने प्राणियों का बोध होता है, उतने प्राणियों का बोध ‘काला घोड़ा’ शब्द से नहीं होता। ‘घोड़ा’ शब्द जितना व्यापक है, उतना ‘काला घोड़ा’ शब्द नहीं है। ‘घोड़ा’ शब्द की व्याप्ति (विस्तार) ‘काला’ शब्द से मर्यादित (संकुचित) होती है, अर्थात् ‘घोड़ा’ शब्द अधिक प्राणियों का बोधक है और ‘काला घोड़ा’ शब्द उससे कम प्राणियों का बोधक है। ‘हिंदी बालबोध व्याकरण’ में विशेषण का यह लक्षण दिया हुआ हैμ‘संज्ञावाचक शब्द के गुणों को जतानेवाले शब्दों को गुणवाचक शब्द कहते हैं।’ इस परिभाषा में अव्याप्ति दोष है; क्योंकि कोई-कोई विशेषण केवल संख्या और कोई-कोई केवल दशा हिंदी व्याकरण ध् 95 प्रकट करते हैं, फिर ‘गुण’ शब्द से इस लक्षण में अतिव्याप्ति दोष भी आ सकता है; क्योंकि भाववाचक संज्ञा भी ‘गुण’ जतानेवाली है। इसके सिवा इस लक्षण में ‘संज्ञा’ के लिए व्यर्थ ही ‘संज्ञावाचक शब्द’ और ‘विशेषण’ के लिए ‘गुणवाचक’ तथा ‘गुणवाचक शब्द’ लाया गया है। जान पड़ता है कि लेखक ने ‘संज्ञा’ शब्द का प्रयोग मराठी के अनुकरण पर, नाम के अर्थ में किया है।) 144. व्यक्तिवाचक संज्ञा के साथ जो विशेषण आता है वह उस संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित नहीं करता, केवल उसका अर्थ स्पष्ट करता है; जैसेμपतिव्रता सीता, प्रतापी भोज, दयालु ईश्वर इत्यादि। इन उदाहरणों में विशेषण संज्ञा के अर्थ स्पष्ट करते हैं। ‘पतिव्रता सीता’ वही व्यक्ति है, जो ‘सीता’ है। इसी प्रकार ‘भोज’ और ‘प्रतापी भोज’ एक ही व्यक्ति के नाम हैं। किसी शब्द का अर्थ स्पष्ट करने के लिए जो शब्द आते हैं वे समानाधिकरण कहाते हैं (दे. अंकμ560)। ऊपर के वाक्यों में ‘पतिव्रता’, ‘प्रतापी’ और ‘दयालु’ समानाधिकरण विशेषण हैं। 145. जातिवाचक संज्ञा के साथ उसका साधारण धर्म सूचित करनेवाला विशेषण समानाधिकरण होता है; जैसेμमूक पशु, अबोध बच्चा, काल कौआ, ठंढी बर्फ इत्यादि। इन उदाहरणों में विशेषणों के कारण संज्ञा की व्यापकता कम नहीं होती। 

146. विशेष्य के साथ विशेषण का प्रयोग दो प्रकार से होता हैμ(1) संज्ञा के साथ, (2) क्रिया के साथ। पहले प्रयोग को विशेष्य विशेषण और दूसरे को विधेय विशेषण कहते हैं। विशेष्य विशेषण, विशेष्य के पूर्व और विधेय विशेषण, क्रिया के पहले आता है; जैसेμ‘ ऐसी सुडौल चीज कहीं नहीं बन सकती।’ (परी.)। ‘हमें तो संसार सूना देख पड़ता है’ (सत्य.)। ‘यह बात सच है।’ (क) विधेयविशेषण समानाधिकरण होता है; जैसेμ‘यह ब्राह्मण चपल है।’ इस वाक्य में ‘यह’ शब्द के कारण ‘ब्राह्मण’ संज्ञा की व्यापकता घटती है; परंतु ‘चपल’ शब्द उस व्यापकता को और कम नहीं करता। उसमें ब्राह्मण के विषय में केवल एक बातμचपलताμजानी जाती है। 147. विशेषण के मुख्य तीन भेद किए जाते हैंμ(1) सार्वनामिक विशेषण, (2) गुणवाचक विशेषण और (3) संख्यावाचक विशेषण। (सू.μयह वर्गीकरण न्यायदृष्टि से नहीं; किंतु उपयोगिता की दृष्टि से किया गया है। सार्वनामिक विशेषण सर्वनामों से बनते हैं; इसलिए दूसरे विशेषणों से उनका एक अलग वर्ग मानना उचित है। फिर व्यवहार में गुण और संख्या भिन्न-भिन्न धर्म हैं, इसलिए इन दोनों के विचार से विशेषण के और दो भेदμगुणवाचक और संख्यावाचक किए गए हैं।) (1) सार्वनामिक विशेषण 148. पुरुषवाचक और निजवाचक सर्वनामों को छोड़कर शेष सर्वनामों का प्रयोग विशेषण के समान होता है। जब ये शब्द अकेले आते हैं; तब सर्वनाम होते 96 ध् हिंदी व्याकरण हैं और जब इनके साथ संज्ञा आती हैं तब ये विशेषण होते हैं, जैसेμ‘नौकर आया; वह बाहर खड़ा है। इस वाक्य में ‘वह’ सर्वनाम है, क्योंकि वह नौकर संज्ञा के बदले आया है, ‘वह नौकर नहीं आया’μयहाँ ‘वह’ विशेषण है क्योंकि ‘वह’ ‘नौकर’ संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित करता है; अर्थात् उसका निश्चय बताता है। इसी तरह ‘किसी को बुलाओ’ और ‘किसी ब्राह्मण को बुलाओ’μइन वाक्यों में किसी क्रमशः सर्वनाम और विशेषण हैं। 149. पुरुषवाचक और निजवाचक सर्वनाम (से, तू, आप) संज्ञा के साथ आकर उसकी व्याप्ति मर्यादित नहीं करते; जैसेμ‘मैं मोहनलाल इकरार करता हूँ।’ इस वाक्य में मैं’ शब्द विशेषण के समान मोहनलाल संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित नहीं करता, किंतु यहाँ ‘मोहनलाल’ शब्द ‘मैं’ के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए आया है। कोई-कोई यहाँ मैं को विशेषण कहेंगे, परंतु यहाँ मुख्य विधान ‘मैं’ के विषय में है क्रिया भी उसी के अनुसार है। जो विशेषण विशेष्य के साथ आता है, उस विशेषण के विषय में विधान नहीं किया जा सकता। इसलिए यहाँ ‘मैं’ और ‘मोहनलाल’ समानाधिकरण शब्द हैं; विशेषण और विशेष्य नहीं हैं। इसी तरह ‘लड़का आप आया था’μइस वाक्य में ‘आप’ शब्द विशेषण नहीं है; किंतु ‘लड़का’ संज्ञा का समानाधिकरण शब्द है। 150. सार्वनामिक विशेषण व्युत्पत्ति के अनुसार दो प्रकार के होते हैंμ (1) मूल सर्वनाम, जो बिना किसी रूपांतर के संज्ञा के साथ आते हैंμजैसेμ वह, घर, वह लड़का, कोई नौकर, कुछ काम इत्यादि (दे. अंकμ114)। (2) यौगिक सर्वनाम (दे. अंकμ141), जो मूल सर्वनामों में प्रत्यय लगाने से बनते हैं और संज्ञा के साथ आते हैं; जैसेμ ऐसा आदमी, कैसा घर, उतना काम, जैसा देश वैसा भेष इत्यादि। 151. मूल सार्वनामिक विशेषणों का अर्थ बहुधा सर्वनामों ही के समान होता है; परंतु कहीं-कहीं उनमें कुछ विशेषता पाई जाती है। (अ) ‘वह’ ‘एक’ के साथ आकर अनिश्चयवाचक होता है; जैसेμ‘ वह एक मनिहारिन आ गई थी।’ (सत्य.)। (सू.μगद्य में ‘सा’ का प्रयोग बहुधा विशेषण के समान नहीं होता।) (आ) ‘कौन’ और ‘कोई’ प्राणी, पदार्थ वा धर्म के नाम के साथ आते हैं; जैसेμ कौन मनुष्य? कौन जानवर? कौन कपड़ा? कौन बात? कोई मनुष्य। कोई जानवर। कोई कपड़ा। कोई बात। इत्यादि। (इ) आश्चर्य में ‘क्या’ प्राणी, पदार्थ वा धर्म तीनों के नाम के साथ आता है; जैसेμ‘तुम भी क्या आदमी हो!’ ‘यह क्या लड़की है?’ क्या बात है!’ इत्यादि। (ई) प्रश्न में ‘क्या’ बहुधा भाववाचक संज्ञाओं के साथ आता है; जैसेμ क्या काम? क्या नाम? क्या दशा? क्या सहायता? इत्यादि। (उ) ‘कुछ’ संख्या, परिमाण और अनिश्चय की बोधक है। संख्या और परिमाण के प्रयोग आगे लिखे जायँगे। (दे. अंकμ184-185)। अनिश्चय के अर्थ में ‘कुछ’, हिंदी व्याकरण ध् 97 ‘क्या’ के समान बहुधा भाववाचक संज्ञाओं के साथ आता है; जैसेμकुछ बात, कुछ डर, कुछ विचार, कुछ उपाय इत्यादि। 152. यौगिक सार्वनामिक विशेषणों के साथ जब विशेष्य नहीं रहता तब उनका प्रयोग प्रायः संज्ञाओं के समान होता है; जैसेμ‘ जैसा करोगे वैसा पाओगे।’ ‘जैसे को तैसा मिले।’ ‘इतने से काम न होगा।’ (अ) ‘ऐसा’ और ‘इतना’ का प्रयोग कभी-कभी ‘यह’ के समान वाक्य के बदले में होता है; जैसेμ ऐसा कब हो सकता है कि मुझे भी दोष लगे’ (गुटका.)। ‘तुम ऐसा क्यों कहते हो कि मैं वहाँ नहीं जा सकता?’ ‘वह इतना कर सकता है कि तुम्हें छुट्टी मिल जाय’। (आ) ‘ऐसा-वैसा’ तिरस्कार के अर्थ में आता है; जैसेμ‘मैं ऐसे-वैसे को कुछ नहीं समझता।’ ‘राजा दिलीप कुछ ऐसा-वैसा न था’ (रघु.)। ‘ऐसी-वैसी कोई चीज नहीं खानी चाहिए।’ 153. (1) यौगिक संबंधवाचक सार्वनामिक विशेषणों के साथ उनके नित्य संबंधी विशेषण आते हैं; जैसेμ ‘जैसा देश वैसा भेष।’ जितना चादर देखो उतना पैर फैलाओ। (अ) कभी-कभी किसी एक विशेषण के विशेष्य का लोप होता है; जैसेμ ‘जितना मैंने दान दिया, उतना तो कभी किसी के ध्यान में न आया होगा’ (गुटका.)। ‘जैसी बात आप कहते हैं; वैसी कोई न कहेगा।’ ‘हमारे ऐसे पदाधिकारियों को शत्राु उतना संताप नहीं देते, जितना दूसरों की संपत्ति और र्कीति।’ (आ) दोनों विशेषणों की द्विरुक्ति से उत्तरोत्तर घटती-बढ़ती का बोध होता है; जैसेμ जितना जितना नाम बढ़ता है, उतना उतना मान बढ़ता है।’ जैसा जैसा काम करोगे वैसा वैसा दाम मिलेगा।’ (इ) कभी कभी ‘जैसा’ और ‘ऐसा’ का उपयोग ‘समान’ (संबंधसूचक) के सदृश होता है; जैसेμ‘प्रवाह उन्हें तालाब का जैसा रूप दे देता हैं (सर.)। यह आप ऐसे महात्माओं का काम है।’ (ई) ‘जैसे का तैसा’μयह विशेषण वाक्यांश ‘पूर्ववत्’ के अर्थ में आता है, जैसे; ‘वे जैसे के तैसे बने रहे।’ (2) यौगिक प्रश्नवाचक (सार्वनामिक) विशेषण (कैसा और कितना) नीचे लिखे अर्थों में आते हैं। (अ) आश्चर्य में; जैसेμ‘मनुष्य कितना धन देगा और याचक कितना लेंगे’ (सत्य.)। ‘विद्या पाने पर कैसा आनंद होता है।’ (आ) ‘ही’ (भी) के साथ अनिश्चय के अर्थ में; जैसेμ‘स्त्राी कैसी ही सुशीलता से रहे, फिर भी लोग चबाव करते हैं’ (शकु.)। (वह) ‘कितना भी दे, पर संतोष नहीं होता’ (सत्य.)। 154. परिमाणवाचक सार्वनामिक विशेषण बहुवचन में संख्यावाचक होते हैं; 98 ध् हिंदी व्याकरण जैसेμ इतने गुणज्ञ और रसिक लोग एकत्रा हैं’ (सत्य.)। ‘मेरे जितने प्रजाजन हैं उनमें से किसी को अकाल मृत्यु नहीं आती’ (रघु.)। (अ) ‘कितने ही’ का प्रयोग ‘कई’ के अर्थ में होता है; जैसेμ‘पृथ्वी के कितने ही अंश धीरे-धीरे उठते जाते हैं’ (सर.)। ‘कितने’ के साथ कभी-कभी ‘एक’ जोड़ा जाता है, जैसेμ‘ कितने एक दिन पीछे फिर जरासंध उतनी ही सेना ले चढ़ आया’ (प्रेम.)। 155. यौगिक सार्वनामिक विशेषण कभी-कभी क्रियाविशेषण होते हैं, जैसेμ‘तू मरने से इतना क्यों डरता है?’ ‘वैदिक लोग कितना भी अच्छा लिखें, तो भी उनके अक्षर अच्छे नहीं होते’ (मुद्रा.)। ‘मुनि ऐसे क्रोधी हैं कि बिना दक्षिणा मिले शाप देने को तैयार होंगे’ (सत्य.)। ‘मृगछौने कैसे निधड़क चर रहे हैं!’ (शकु.)। (अ) ‘इतने में’ क्रियाविशेषण वाक्यांश है, और उसका अर्थ ‘इस समय में’ होता है; जैसेμ‘ इतने में ऐसा हुआ।’ 156. ‘निज’ और ‘पराया’ भी सार्वनामिक विशेषण हैं; क्योंकि इनका प्रयोग बहुधा विशेषण के समान होता है; ये दोनों अर्थ में एक दूसरे के उलटे हैं। ‘निज’ का अर्थ ‘अपना’ और ‘पराया’ का अर्थ ‘दूसरे का’, है; जैसेμ निज देश, निज भाषा, पराया घर, पराया माल इत्यादि। (2) गुणवाचक विशेषण 157. गुणवाचक विशेषणों की संख्या और सब विशेषणों की अपेक्षा अधिक रहती है। इनके कुछ मुख्य अर्थ नीचे दिए जाते हैंμ कालμ नया, पुराना, ताजा, भूत, वर्तमान, भविष्य, प्राचीन, अगला, पिछला, मौसमी, आगामी, टिकाऊ इत्यादि। स्थानμ लंबा, चैड़ा, ऊँचा, नीचा, गहरा, सीधा, सँकरा, तिरछा, भीतरी, बाहरी, ऊजड़, स्थानीय इत्यादि। आकारμ गोल, चैकोर, सुडौल, समान, पोला, सुंदर, नुकीला इत्यादि। रंगμ लाल, पीला, नीला, हरा, सफेद, काला, बैगनी, सुनहरी, चमकीला, धुँधला, फीका इत्यादि। दशाμ दुबला, पतला, मोटा, भारी, पिघला, गाढ़ा, गीला, सूखा, घना, गरीब, उद्यमी, पालतू, रोगी इत्यादि। गुणμ भला, बुरा, उचित, अनुचित, सच, झूठ, पापी, दानी, न्यायी, दुष्ट, सीधा, शांत इत्यादि। 158. गुणवाचक विशेषणों के साथ हीनता के अर्थ में ‘सा’ प्रत्यय जोड़ा जाता है; जैसेμ ‘बड़ा सा पेड़’, ऊँची सी दीवार’, ‘यह चाँदी खोटी सी दिखती है’, ‘उसका सिर कुछ भारी सा हो गया।’ हिंदी व्याकरण ध् 99 (सू.μसा = प्राकृत सरिसो, संस्कृत सदृशः।) 159. ‘नाम’ (वा ‘नामक’), ‘संबंधी’ और ‘रूपी’ संज्ञाओं के साथ मिलकर विशेषण होते हैं; जैसेμ‘ बाहुक नाम सारथी’, ‘परंतप नामक राजा’, ‘घर संबंधी काम’, ‘तृष्णारूपी नदी’ इत्यादि। 160. ‘सरीखा’ संज्ञा और सर्वनाम के साथ संबंधसूचक होकर आता है; जैसेμ‘हरिश्चंद्र सरीखा दानी’, ‘मुझ सरीखे लोग।’ इसका प्रयोग कुछ कम हो चला है। 161. ‘समान’ (सदृश) और ‘तुल्य’ (बराबर) का प्रयोग कभी-कभी संबंधसूचक के समान होता है; जैसेμ‘उसका थन घड़े के समान बड़ा था’ (रघु.)। ‘लड़का आदमी के बराबर दौड़ा।’ (अ) ‘योग्य’ (लायक) संबंधसूचक के समान आकर भी बहुधा विशेषण ही रहता है; जैसेμ‘मेरे योग्य कामकाज लिखिएगा।’ 162. गुणवाचक विशेषण के बदले बहुधा संज्ञा का संबंधकारक आता है; जैसेμ‘घरू झगड़ा’ = घर का झगड़ा। ‘जंगली जानवर’ = जंगल का जानवर। ‘बनारसी साड़ी’ = बनारस की साड़ी। 163. जब गुणवाचक विशेषणों का विशेष्य लुप्त रहता है तब उनका प्रयोग संज्ञाओं के समान होता है। (दे. अंकμ151); जैसेμ ‘बड़ों’ ने सच कहा है’ (सत्य.)। ‘दीनों को मत सताओ’ सहज में, ठंढे में। (अ) कभी-कभी विशेषण अकेला आता है और उसका लुप्त विशेष्य अनुमान से समझ लिया जाता है; जैसेμ ‘महाराज जी ने खटिया पर लंबी तानी।’ ‘बापुरे बटोही पर कड़ी बीती’ (ठेठ)। जिसके समक्ष न एक भी विजयी सिकंदर की चली’ (भारत.)। (3) संख्यावाचक विशेषण 164. संख्यावाचक विशेषण के मुख्य तीन भेद हैंμ(1) निश्चित संख्यावाचक, (2) अनिश्चित संख्यावाचक और (3) परिमाणबोधक। (1) निश्चित संख्यावाचक विशेषण 165. निश्चित संख्यावाचक विशेषणों से वस्तुओं की निश्चित संख्या का बोध होता है; जैसेμएक लड़का, पच्चीस रुपये, दसवाँ भाग, दूना मोल, पाँचों इंद्रियाँ, हर आदमी इत्यादि। 166. निश्चित संख्यावाचक विशेषणों के पाँच भेद हैंμ(1) गुणवाचक, (2) क्रमवाचक, (3) आवृत्तिवाचक, (4) समुदायवाचक और (5) प्रत्येकबोधक। 167. गुणवाचक विशेषणों के दो भेद हैंμ (अ) पूर्णांकबोधक; जैसेμएक, दो, चार, सौ, हजार। (आ) अपूर्णांकबोधक; जैसेμपाव, आध, पौन, सवा। 100 ध् हिंदी व्याकरण (अ) पूर्णांकबोधक विशेषण 168. पूर्णांकबोधक विशेषण दो प्रकार से लिखे जाते हैंμ(1) शब्दों में, (2) अकों में। बड़ी-बड़ी संख्याएँ अंकों में लिखी जाती हैं; परंतु छोटी-छोटी संख्याएँ और अनिश्चित बड़ी संखाएँ बहुधा शब्दों में लिखी जाती हैं; तिथि और संवत् को अंकों में ही लिखते हैं। उदाहरणμ‘सन् 1600 में एक तोले भर सोने की दस तोले चाँदी मिलती थी। सन् 1700 में अर्थात् सौ बरस बाद तोले भर सोने की चैदह तोले मिलने लगा’ (इति.)। सात वर्ष के अंदर 12 करोड़ रुपये सात जंगी जहाजों और छह जंगी क्रूजर्स के बनाने में और खर्च किए जायँगे’ (सर.)। 169. पूर्णांकबोधक विशेषणों के नाम और अंक नीचे दिए जाते हैंμ एक 1 छब्बीस 26 इक्यावन 51 छिहत्तर 76 दो 2 सत्ताईस 27 बावन 52 सतहत्तर 77 तीन 3 अट्ठाईस 28 तिरपन 53 अठहत्तर 78 चार 4 उन्तीस 29 चैवन 54 उन्यासी 79 पाँच 5 तीस 30 पचपन 55 अस्सी 80 छः 6 इकतीस 31 छप्पन 56 इक्यासी 81 सात 7 बत्तीस 32 सत्तावन 57 बयासी 82 आठ 8 तैंतीस 33 अट्ठावन 58 तिरासी 83 नौ 9 चैंतीस 34 उनसठ 59 चैरासी 84 दस 10 पैंतीस 35 साठ 60 पचासी 85 ग्यारह 11 छत्तीस 36 इकसठ 61 छियासी 86 बारह 12 सैंतीस 37 बासठ 62 सत्तासी 87 तेरह 13 अड़तीस 38 तिरसठ 63 अट्ठासी 88 चैदह 14 उन्तालीस 39 चैंसठ 64 नवासी 89 पंद्रह 15 चालीस 40 पैंसठ 65 नब्बे 90 सोलह 16 इकतालीस 41 छाछठ 66 इक्यानबे 91 सत्राह 17 बयालीस 42 सड़सठ 67 बानबे 92 अठारह 18 तैंतालीस 43 अड़सठ 68 तिरानबे 93 उन्नीस 19 चैवालीस 44 उनहत्तर 69 चैरानबे 94 बीस 20 पैंतालीस 45 सत्तर 70 पंचानबे 95 इक्कीस 21 छियालीस 46 इकहत्तर 71 छियानबे 96 बाईस 22 सैंतालीस 47 बहत्तर 72 सत्तानबे 97 तेईस 23 अड़तालीस 48 तिहत्तर 73 अट्ठानबे 98 चैबीस 24 उनचास 49 चैहत्तर 74 निन्नानबे 99 पच्चीस 25 पचास 50 पचहत्तर 75 सौ 100 हिंदी व्याकरण ध् 101 170. दहाई की संख्याओं में एक से लेकर आठ तक अंकों का उच्चारण दहाइयों के पहले होता है; जैसेμ‘चै-दह’, ‘चै-बीस’, ‘पैं-तीस’, पैं-तालीस’ इत्यादि। ख्क, दहाई की संख्या सूचित करने में इकाई और दहाई के अंकों का उच्चारण कुछ बदल जाता है, जैसेμ एक = इक। दस = रह। दो = बा, ब। बीस = ईस। तीन = ते, तिर, ति। तीस = तीस। चार = चै, चैं। चालीस = तालीस। पाँच = पंद, पच पचास = वन, पन। पैं, पंच। साठ = सठ। छः = सो, छ। सत्तर = हत्तर। सात = सत, सैं, सड़। अस्सी = आसी। आठ = अठ, अड़। नब्बे = नवे। 171. बीस से लेकर अस्सी तक प्रत्येक दहाई के नाम के पहले की संख्या सूचित करने के लिए उस दहाई के नाम से पहले ‘उन’ शब्द का उपयोग होता है; जैसेμ‘उन्नीस’, ‘उन्तीस’, ‘उनसठ’ इत्यादि। यह शब्द संस्कृत के ‘ऊन’ शब्द का अपभ्रंश है। ‘नवासी’ और ‘निन्नानबे’ में क्रमशः ‘नव’ और ‘निम्ना’ जोड़े जाते हैं। संस्कृत में इन संख्याओं के रूप ‘नवाशीति’ और ‘नवनवति’ हैं। 172. सौ के ऊपर की संख्या जताने के लिए एक से अधिक शब्दों का उपयोग किया जाता है; जैसेμ125 = ‘एक सौ पच्चीस’, 275 = ‘दो सौ पचहत्तर’ इत्यादि। (अ) सौ और दो सौ के बीच की संख्याएँ प्रकट करने के लिए कभी छोटी संख्या को पहले कह कर फिर बड़ी संख्या बोलते हैं। इकाई के साथ ‘ओतर’ (सं.μउत्तर = अधिक) और दहाई के साथ ‘आ’ जोड़ा जाता है; जैसेμ‘अठोतर सौ’ = 178, ‘चालीस सौ’ = 140 इत्यादि। इनका प्रयोग बहुधा गणित और पहाड़ों में होता है। 173. नीचे लिखी संख्याओं के लिए अलग-अलग नाम हैंμ 1000 = हजार (सं. सहस्र)। 100 हजार = लाख। 100 लाख = करोड़। 100 करोड़ = अरब। 100 अरब = खरब। (अ) खरब से उत्तरोत्तर सौ-सौ गुनी संख्याओं के लिए क्रमशः नील, पर्,िं शंख आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है। इन संख्याओं में बहुधा असंख्यता का बोध होता है। 102 ध् हिंदी व्याकरण (आ) अपूर्णांकबोधक विशेषण 174. अपूर्णांकबोधक विशेषण से पूर्णसंख्या के किसी भाग का बोध होता है; जैसेμपाव = चैथाई भाग, पौन = तीन भाग, सवा = एक पूर्णांक चैथाई भाग, अढ़ाई = दो पूर्णांक और आधा इत्यादि। (अ) दूसरे पूर्णांकबोधक शब्द अंश (सं.), भाग वा हिस्सा (फा.) शब्द के उपयोग से सूचित होते हैं; जैसेμतृतीयांश वा तीसरा हिस्सा वा तीसरा भाग, दो पंचमांश (पाँच भागों में से दो भाग) इत्यादि। तीसरे हिस्से को ‘तिहाई’ और चैथे हिस्से को ‘चैथाई’ भी कहते हैं। 175. अपूर्णांकबोधक विशेषणों के नाम और अंक नीचे लिखे जाते हैंμ पाव = 1, ( सवा = 1।, 1( आधा = ड्ड, ) डेढ़ = 1ड्ड, 1) ‘पौन’ =।ड्ड, = पौने दो = 1।ड्ड, 1= अढ़ाई या ढाई = 2ड्ड, 2) साढ़े तीन = 3ड्ड, 3) (अ) एक से अधिक संख्याओं के साथ पाव और पौन सूचित करने के लिए पूर्णांकबोधक शब्द के पहले क्रमशः ‘सवा’ (सं. सपाद) और ‘पौने’ (सं. पादोन) शब्दों का उपयोग किया जाता है; जैसेμ‘सवा दो’ = 2 (, ‘पौने तीन’ = 2=। (आ) तीन और उसके ऊपर की संख्याओं में आधे की अधिकता सूचित करने के लिए ‘साढ़े’ (सं.μसार्ध) का उपयोग होता है; जैसेμ‘साढ़े चार’ = 4 (, ‘साढ़े दस’ = 10) इत्यादि। (सं.μ‘पौने’ और ‘साढ़े’ शब्द कभी अकेले नहीं आते। ‘सवा’ अकेला 1 ( के लिए आता है। 176. सौ, हजार, लाख इत्यादि संख्याओं में भी अपूर्णांकबोधक शब्द जोड़े जाते हैं; जैसेμ‘सवा सौ’ = 125, ‘ढाई सौ’ = 250, ‘साढ़े तीन हजार’ = 3500, ‘पौने पाँच लाख’ = 475000 इत्यादि। 177. अपूर्णांकबोधक शब्द मापतौल वाचक संज्ञाओं के साथ भी आते हैं, जैसेμ‘सवासेर’, ‘डेढ़ गज’, ‘पौने तीन कोस’ इत्यादि। 178. कभी-कभी अपूर्णांकबोधक संज्ञा आनों के हिसाब से भी सूचित की जाती है; जैसेμ‘इस साल चैदह आने फसल हुई है।’ ‘इस व्यापार में मेरा चार आने हिस्सा है।’ इत्यादि। 179. गणनावाचक विशेषणों के प्रयोग में नीचे लिखी विशेषताएँ हैंμ (अ) पूर्णांकबोधक विशेषण के साथ ‘एक’ लगाने से ‘लगभग’ का अर्थ पाया जाता है, जैसेμ‘ दस एक आदमी’, ‘चालीस एक गायें’ इत्यादि। हिंदी व्याकरण ध् 103 ‘सौ एक’ का अर्थ ‘सौ के लगभग’ है, परंतु ‘एक सौ एक’ का अर्थ ‘सौ और एक’ है। अनिश्चय अथवा अनादर के अर्थ में ‘ठो जोड़ा जाता है, जैसेμदो ठो रोटियाँ, पचास ठो आदमी। (सू.μकविता में ‘एक’ के बदले बहुधा ‘क’ जोड़ा जाता है, जैसेμचली छ सातक हाथ, दिन द्वैक तें (सत.)। (आ) एक के अनिश्चय के लिए उसके साथ आद या आध लगाते हैं; जैसेμएक आद टोपी, एक आध कवित्त। एक और आद (आध) में बहुधा संधि भी हो जाती है, जैसेμ एकाद, एकाध। (इ) अनिश्चय के लिए कोई भी दो पूर्णांकबोधक विशेषण साथ-साथ आते हैं; जैसेμ ‘ दो चार दिन में’ ‘दस बीस रुपये’, ‘सौ दो सौ आदमी’ इत्यादि। ‘डेढ़ दो’, ‘अढ़ाई तीन’ आदि भी बोलते हैं। ‘उन्नीस बीस’ कहने से कुछ कमी समझी जाती है; जैसेμ‘बीमारी अब उन्नीस बीस है’ ‘तीन पाँच’ का अर्थ ‘लड़ाई’ है और ‘तीन तेरह’ का अर्थ ‘तितर बितर’ है। (ई) ‘बीस’, ‘पचास’, ‘सैकड़ा’, ‘हजार’, ‘लाख’ और ‘करोड़’ में ओ जोड़ने से अनिश्चय का बोध होता है; जैसेμ‘बीसों आदमी’,‘पचासों घर’, ‘सैकड़ों रुपये’, ‘हजारों बरस’, ‘करोड़ों पंडित’ इत्यादि। (सू.μएक लेखक हिंदी ‘करोड़’ शब्द के साथ ‘ओं’ के बदले फारसी का ‘हा’ प्रत्यय जोड़कर ‘करोड़हा’ लिखते हैं, जो अशुद्ध है।) 180. क्रमवाचक विशेषण से किसी वस्तु की क्रमानुसार गणना का बोध होता है, जैसेμपहला, दूसरा, पाँचवाँ इत्यादि। (अ) क्रमवाचक विशेषण पूर्णांकबोधक विशेषणों से बनते हैं। पहले चार क्रमवाचक विशेषण नियमरहित हैं; जैसेμ एक = पहला तीन = तीसरा दो = दूसरा चार = चैथा (आ) पाँच से लेकर आगे के शब्दों में ‘वाँ’ जोड़ने से क्रमवाचक विशेषण बनते हैं; जैसेμ पाँच = पाँचवाँ दस = दसवाँ छ = (छठवाँ) छठा पंद्रह = पंद्रहवाँ आठ = आठवाँ पचास = पचासवाँ (इ) सौ से ऊपर की संख्याओं में पिछले शब्द के अंत में वाँ लगाते हैं; जैसेμएक सौ तीनवाँ इत्यादि। 104 ध् हिंदी व्याकरण (ई) कभी-कभी संस्कृत क्रमवाचक विशेषणों का भी उपयोग होता है; जैसेμप्रथम (पहला), द्वितीय (दूसरा), तृतीय (तीसरा), चतुर्थ (चैथा), पंचम (पाँचवाँ), षष्ठ (छठा), दशम (दसवाँ), ‘षष्ठम’ अशुद्ध है। (उ) तिथियों के नामों में हिंदी शब्दों के सिवा कभी-कभी संस्कृत शब्दों का भी उपयोग होता है; जैसेμहिंदीμदूज (दोज), तीज, चैथ, पाँचें, छठ, इत्यादि। संस्कृतμद्वितीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी इत्यादि। 181. आवृत्तिवाचक विशेषण से जाना जाता है कि उसके विशेष्य का वाच्य पदार्थ कै गुना है; जैसेμदुगुना, चैगुना, दस गुना, सौगुना इत्यादि। (अ) पूर्णांकबोधक विशेषण के आगे ‘गुना’ शब्द लगाने से आवृत्तिवाचक के विशेषण बनते हैं। ‘गुना’ शब्द लगाने के पहले दो से लेकर आठ तक संख्याओं के शब्दों में आद्य स्वर का कुछ विकार होता है; जैसेμ दो = दुगुना वा दूना छह =छगुना तीन = तिगुना सात = सतगुना चार = चैगुना आठ = अठगुना पाँच = पचगुना नौ = नौगुना (आ) परत वा प्रकार के अर्थ में ‘हरा’ जोड़ा जाता है; जैसेμइकहरा, दुहरा, तिहरा, चैहरा इत्यादि। (इ) कभी-कभी संस्कृत के आवृत्तिवाचक विशेषण का भी उपयोग होता है; जैसेμद्विगुण, त्रिागुण, चतुर्गुण इत्यादि। (ई) पहाड़ों में आवृत्तिवाचक और अपूर्ण संख्याबोधक विशेषणों के रूपों में कुछ अंतर हो जाता है; जैसेμ दूनμदूने, दूनी। सवाμसवाम। तिगुनाμतिया, तिरिक। डेढ़μडेवढे़ चैगुनाμचैक। अढ़ाईμअढ़ाम। पंचगुनाμपंचे। छगुनाμछक। सतगुनाμसत्ते। अठगुनाμअट्ठे। नौगुनाμनवाँ, नवें। दसगुनाμदहाम। (सू.μइन शब्दों का उच्चारण भिन्न-भिन्न प्रदेशों में भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है।) 182. समुदायवाचक विशेषणों से किसी पूर्णांकबोधक संख्या के समुदाय का हिंदी व्याकरण ध् 105 बोध होता है; जैसेμदोनों हाथ, चारों पाँव, आठों लड़के, चालीसों चोर इत्यादि। (अ) पूर्णांकबोधक विशेषणों के आगे, ‘ओं’ जोड़ने से समुदायवाचक विशेषण बनते हैं; जैसेμचारμचारों, दसμदसों, सोलहμसोलहों इत्यादि। छह का रूप ‘छओं’ होता है। (आ) ‘दो’ से ‘दोनों’ बनता है। ‘एक’ का समुदायवाचक रूप ‘अकेला’ है। ‘दोनों’ का प्रयोग बहुधा सर्वनाम के समान होता है; जैसेμ‘दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम।’ ‘अकेला’ कभी-कभी क्रियाविशेषण के समान आता है; जैसेμ‘विपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू’ (राम.)। (सूचनाμ‘ओ’ प्रत्यय अनिश्चय में भी आता है (दे. अंकμ179 ई)। (इ) कभी-कभी अवधारण के लिए समुदायवाचक विशेषण की द्विरुक्ति भी होती है, जैसेμ ‘पाँचों के पाँचों’ आदमी चले गए। ‘दोनों के दोनों’ लड़के मूर्ख निकले। (ई) समुदाय के अर्थ में कुछ संज्ञाएँ भी आती हैं; जैसेμ जोड़ा, जोड़ी = दो, गंडा = चार या पाँच दहाई = दस गाही = पाँच। कौड़ी, बीसा, बीसी = बीस। चालीसा = चालीस। बत्तीसी = बत्तीस। सैकड़ा = सौ। छक्का = छह। दर्जन (अं.) = बारह। (अ) युग्म (दो), पंचक (पाँच), अष्टक (आठ) आदि। संस्कृत समुदायवाचक संज्ञाएँ भी प्रचार में हैं। 183. प्रत्येकबोधक विशेषण में कई वस्तुओं में से प्रत्येक का बोध होता है; जैसेμ‘हर घड़ी’, ‘हर एक आदमी’, ‘प्रत्येक जन्म’, ‘ प्रत्येक बालक’, ‘हर आठवें दिन’ इत्यादि। ‘हर’ उर्दू शब्द है। ‘हर’ के बदले कभी-कभी उर्दू ‘फी’ आता है, जैसेμकीमत फी जिल्द। (अ) गणनावाचक विशेषणों की द्विरुक्ति से भी यही अर्थ निकलता है; जैसेμ ‘एक एक लड़के को आधा आधा फल मिला।’ ‘दवा दो दो घंटे के बाद दी जावे।’ (आ) अपूर्णांकबोधक विशेषणों में मुख्य शब्द की द्विरुक्ति होती है; जैसेμ‘सवा सवा गज’, ‘ढाई ढाई सौ रुपये’, ‘पौने दो दो मन’, ‘साढ़े पाँच पाँच हजार’ इत्यादि। (2) अनिश्चित संख्यावाचक विशेषण 184. जिस संख्यावाचक विशेषण से किसी निश्चित संख्या का बोध नहीं होता, उसे अनिश्चित संख्यावाचक विशेषण कहते हैं; जैसेμएक दूसरा, (अन्य, और) सब 106 ध् हिंदी व्याकरण (सर्व, सकल, समस्त, कुछ), बहुत (अनेक, कई, नाना), अधिक (ज्यादा); कम, कुछ आदि (इत्यादि, वगैरह), अमुक (फलाना)। अनिश्चित संख्या के अर्थ में इनका प्रयोग बहुवचन में होता है। और-और विशेषणों के समान ये विशेषण भी (बिना विशेष्य के) संज्ञा के समान उपयोग में आते हैं; इनमें से कोई-कोई परिमाणबोधक विशेषण भी होते हैं। (1) ‘एक’ पूर्णांकबोधक विशेषण है; परंतु इसका प्रयोग बहुधा अनिश्चित के लिए होता है। (अ) ‘एक’ से कभी-कभी ‘कोई’ का अर्थ पाया जाता है; जैसेμ‘ एक दिन ऐसा हुआ।’ ‘हमने एक बात सुनी है।’ (आ) जब ‘एक’ संज्ञा के समान आता है, तब उसका प्रयोग कभी-कभी बहुवचन के अर्थ में होता है और दूसरे वाक्य में उसकी द्विरुक्ति भी होती है; जैसेμ‘एक रोता है’ और ‘एक हँसता है।’ ‘इक प्रविशहि इक निर्गमहि’ (राम.)। (इ) ‘एक’ कभी-कभी ‘केवल’ के अर्थ में क्रियाविशेषण होता है; जैसेμ‘एक आधा सेर आटा चाहिए।’ ‘एक तुम्हारे ही दुःख से हम दुखी हैं।’ (ई) ‘एक’ के साथ सा प्रत्यय लगाने से ‘समान’ का अर्थ पाया जाता है; जैसेμदोनों का रूप एक सा है। (उ) अनिश्चय के अर्थ में ‘एक’ कुछ सर्वनामों और विशेषणों में जोड़ा जाता है; जैसेμकोई एक, कुछ एक, दस एक, कितने एक इत्यादि। (ऊ) ‘एक एक’ कभी कभी ‘यह वह’ के अर्थ में निश्चयवाचक के समान आता है; जैसेμ ‘पुनि बंदौ शारद सुर सरिता। युगल पुनीत मनोहर चरिताड्ड मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत इक हर अविवेकाड्ड’ (राम.) (2) ‘दूसरा’ ‘दो’ का क्रमवाचक विशेषण है। यह ‘प्रकृत प्राणी’ या पदार्थ से ‘भिन्न’ के अर्थ में आता है; जैसेμ‘यह दूसरी बात है।’ ‘द्वार दूसरे दीनता उचित न तुलसी तोर।’ (तु. स.)। ‘दूसरा’ के पर्यायवाची ‘अन्य’ और ‘और’ है; जैसेμ अन्य पदार्थ, और जाति। (अ) कभी कभी ‘दूसरा’ ‘एक’ के साथ विभिन्नता (तुलना) के अर्थ में (संज्ञा के समान) आता है, जैसेμ‘ एक जलता मांस मारे तृष्णा के मुँह में रख लेता है...और दूसरा उसी को फिर झट से खा जाता है’ (सत्य.)। (आ) ‘एक-एक’ के समान ‘एक दूसरा’ अथवा ‘पहला दूसरा’ पहले कही हुई हिंदी व्याकरण ध् 107 दो वस्तुओं का क्रमानुसार निश्चय सूचित करता है, जैसेμप्रतिष्ठा के लिए दो विद्याएँ हैं, एक शस्त्रा विद्या और दूसरी शास्त्रा विद्या। पहली बुढ़ापे में हँसी कराती है, परंतु दूसरी का सदा आदर होता है। (इ) ‘एक-दूसरा’ यौगिक शब्द है और इसका प्रयोग ‘आपस’ के अर्थ में होता है, यह बहुधा सर्वनाम के समान (संज्ञा के बदले में) आता है, जैसेμ‘लड़के एक दूसरे से लड़ते हैं।’ (ई) ‘और’ कभी कभी ‘अधिक संख्या’ के अर्थ में भी आता है, जैसेμ‘ मैं और आम लूँगा।’ (उ) ‘और का और’ विशेषण वाक्यांश है और उसका अर्थ ‘भिन्न’ होता है, जैसेμ‘उसने और का और काम कर दिया।’ (ऊ) ‘और’ समुच्चयबोधक भी होता है, जैसेμ‘हवा चली और पानी गिरा।’ (दे. अंकμ243) (ओ) ‘कोई’, ‘कुछ’, ‘कौन’ और ‘क्या’ के साथ भी ‘और’ आता है, जैसेμ‘असल चोर कोई और है।’ ‘मैं और कुछ कहूँगा।’ ‘तुम्हारे साथ और कौन है?’ ‘मारने के सिवा और क्या होगा।’ (3) ‘सब’ पूरी संख्या सूचित करता है, परंतु अनिश्चित रूप से। ‘सब’ में पाँच भी शामिल है और पचास भी। इसका प्रयोग बहुधा बहुवचन संज्ञा के साथ होता है; जैसेμ‘ सब लड़के।’ ‘सब कपड़े।’ ‘सब भीड़।’ ‘सब प्रकार।’ (अ) संज्ञारूप में इसका प्रयोग ‘संपूर्ण वा प्राणी पदार्थ’ के अर्थ में आता है; जैसेμ‘सब यही बात कहते हैं। सब के दाता राम।’ ‘आत्मा सब में व्याप्त है।’ ‘मैं सब जानता हूँ।’ (आ) ‘सब’ के साथ ‘कोई’ और ‘कुछ’ आते हैं। ‘सब कोई’ और ‘सब कुछ’ के अर्थ का अंतर ‘कोई’ और ‘कुछ’ (सर्वनामों) के ही समान है, जैसेμ‘ सब कोई अपनी बड़ाई चाहते हैं’ (शकु.)। ‘हम समझते सब कुछ हैं’ (सत्य.)। (इ) ‘सब का सब विशेषण वाक्यांश है, और इसका प्रयोग ‘समस्तता’ के अर्थ में होता है, सब के सब लड़के लौट आए। (ई) ‘सब’ के पर्यायवाची ‘सर्व’, ‘सकल’, ‘समस्त’ और उर्दू ‘कुल’ हैं। इन शब्दों का उपयोग बहुधा विशेषण ही के समान होता है। (4) ‘बहुत’ थोड़ा का उलटा है। जैसेμ‘मुसलमान थे बहुत और हिन्दू थे थोडे़’ (सर.)। (अ) ‘बहुत’ के साथ ‘से’ और ‘सारे’ जोड़ने से कुछ अधिक संख्या का बोध होता है, जैसेμ‘ बहुत से लोग ऐसा समझते हैं।’ ‘बहुत सारे लड़के’। यह पिछला प्रयोग प्रांतीय है। 108 ध् हिंदी व्याकरण (आ) ‘बहुत’ के साथ ‘कुछ’ भी आता है। ‘बहुत कुछ’ का अर्थ प्रायः ‘बहुत से’ के समान होता है, जैसेμ‘बहुत कुछ आदमी आए थे।’ (इ) ‘अनेक’ (अन् ़ एक) ‘एक’ का उलटा है। इसका प्रयोग अनिश्चित संख्या के लिए होता है। ‘अनेक’ ‘कई’ प्रायः समानार्थी हैं। उदाहरणμ‘ अनेक जन्म’, ‘कई रंग’ इत्यादि। ‘अनेक’ में विविधता के अर्थ में बहुधा ‘ओ’ जोड़ देते हैं, जैसेμ ‘अनेकों रोग’, ‘अनेकों मनुष्य’ इत्यादि। (ई) ‘कई’ के साथ बहुधा ‘एक’ आता है। ‘कई एक’ का अर्थ प्रायः ‘कई प्रकार का’ है और उसका पर्यायवाची ‘नाना’ है; जैसेμ‘कई एक ब्राह्मण’ ‘नाना वृक्ष’ इत्यादि। (5) ‘अधिक’ और ‘ज्यादा’ ‘तुलना’ में आते हैं, जैसेμ‘अधिक रुपया’ ‘ज्यादा दिन’ इत्यादि। (6) ‘कम’ ‘ज्यादा’ का उलटा है और इसी के समान तुलना में आता है; जैसेμ‘यह कपड़ा कम-दामों में बेचते हैं।’ (7) ‘कुछ’ अनिश्चयवाचक सर्वनाम होने के सिवा (दे. अंक 133, 151μउ) संख्या का भी द्योतक है। यह ‘बहुत’ का उलटा है; जैसेμ‘ कुछ लोग’, ‘कुछ फल’, ‘कुछ तारे’ इत्यादि। (8) ‘आदि’ का अर्थ ‘और ऐसे ही दूसरे’ हैं। इसका प्रयोग संज्ञा और विशेषण दोनों के समान होता है; जैसेμ‘आप मेरी दैवी, मानुषी आदि सभी आपत्तियों के नाश करने वाले हैं’ (रघु.)। ‘विद्यानुरागिता, उपकारप्रियता आदि गुण जिसमें सहज हों’ (सत्य.)’ ‘इस युक्ति से उसको टोपी, रूमाल, घड़ी, आदि का बहुधा फायदा हो जाता था’ (परी.)। ‘आदि’ के पर्यायवाचक ‘इत्यादि’ और ‘वगैरह’ हैं। ‘वगैरह’ उर्दू (अरबी) शब्द है, हिंदी में इसका प्रयोग कम होता है। ‘इत्यादि’ का प्रयोग बहुधा किसी विषय के कुछ उदाहरणों के पश्चात् होता है; जैसेμ‘क्या हुआ, क्या देखा इत्यादि।’ (भाषासार.) ‘‘पठन, मनन, घोषणा इत्यादि सब शब्द यही गवाही देते हैं।’ (इति.)। (सू.μ ‘आदि’, ‘इत्यादि’ और ‘वगैरह’ शब्दों का उपयोग बार-बार करने से लेखक की असावधानी और अर्थ का अनिश्चय सूचित होता है। एक उदाहरण के पश्चात् आदि और एक से अधिक के बाद इत्यादि लाना चाहिए; जैसेμघर आदि की व्यवस्था, कपड़े, भोजन इत्यादि का प्रबंध।) (9) ‘अमुक’ का प्रयोग कोई ‘एक’ (दे. अंकμ132μउ) के अर्थ में होता है; जैसेμ‘आदमी यह नहीं कहते कि अमुक बात अमुक राय या अमुक सम्मति निर्दोष है’ (स्वा.)। ‘अमुक’ का पर्यायवाची ‘फलाना’ (उर्दूμफलाँ) है। (10) ‘कै’ का अर्थ प्रश्नवाचक विशेषण ‘कितने’ के समान है। इसका प्रयोग संज्ञा की नाईं क्वचित् होता है; जैसेμ‘कै लड़के’, ‘कै आम’ इत्यादि। हिंदी व्याकरण ध् 109 (3) परिमाणबोधक विशेषण 185. परिमाणबोधक विशेषणों से किसी वस्तु की नाप या तौल का बोध होता है; जैसेμऔर, सब, सारा, समूचा अधिक (ज्यादा), बहुत, बहुतेरा, कुछ (अल्प, किंचित्, जरा), कम, थोड़ा, पूरा, अधूरा, यथेष्ट इत्यादि। (अ) इन शब्दों से केवल अनिश्चित परिणाम का बोध होता है, जैसेμ और घी लाओ’, ‘सब धान’, ‘सारा कुटुंब’, ‘बहुतेरा काम’, ‘थोड़ी बात’ इत्यादि। (आ) ये विशेषण एकवचन संज्ञा के साथ परिमाणबोधक और बहुवचन संज्ञा के साथ अनिश्चित संख्यावाचक होते हैं, जैसेμ परिमाणबोधक अनिश्चित संख्यावाचक बहुत दूध बहुत आदमी सब जंगल सब पेड़ सारा देश सारे देश बहुतेरा काम बहुतेरे उपाय पूरा आनंद पूरे टुकड़े ‘अल्प’ ‘किंचित्’ और ‘जरा’ केवल परिमाणवाचक है। (इ) निश्चित परिमाण बताने के लिए संख्यावाचक विशेषण के साथ परिमाणबोधक संख्याओं का प्रयोग किया जाता है, जैसेμ ‘दो सेर घी’, ‘चार गज मलमल’, ‘दस हाथ जगह’ इत्यादि। (ई) परिमाणबोधक संज्ञाओं में ‘ओं’ जोड़ने से उनका प्रयोग अनिश्चित परिमाणबोधक विशेषणों के समान होता है, जैसेμढेरों इलायची, मनों घी, गाड़ियों फल इत्यादि। (उ) एक परिमाण सूचित करने के लिए परिमाणबोधक संज्ञा के साथ ‘भर’ प्रत्यय जोड़ देते हैं, जैसेμ एक गज कपड़ा = गज भर कपड़ा। एक तोला सोना = तोले भर सोना। एक हाथ जगह = हाथ भर जगह। (ऊ) कोई कोई परिमाणबोधक विशेषण एक दूसरे से मिलकर आते हैं, जैसेμ‘ बहुत सारा काम’, ‘बहुत कुछ आशा’। ‘थोड़ा बहुत लाभ’, ‘कम ज्यादा आमदनी’। (ओ) ‘बहुत’, ‘थोड़ा’, ‘जरा’, ‘अधिक’ (ज्यादा) के साथ निश्चय के अर्थ में ‘सा’ प्रत्यय जोड़ा जाता है, जैसेμ बहुत सा लाभ’, ‘थोड़ी सी विद्या’ ‘जरा सी बात’, ‘अधिक सा बल’। (औ) कोई कोई परिमाणवाचक विशेषण क्रियाविशेषण भी होते हैं, जैसेμ‘नल 110 ध् हिंदी व्याकरण ने दमयंती को बहुत समझाया’ (गुटका.)। ‘यह बात तो कुछ ऐसी बड़ी न थी’ (शकु.)। ‘जिनको और सारे पदार्थों की अपेक्षा यश ही अधिक प्यारा है’ (रघु.)। ‘लकीर और सीधी करो।’ ‘यह सोना थोड़ा खोटा है।’ ‘थोड़े’ का अर्थ प्रायः नहीं के बराबर होता है जैसेμहम लड़ते ‘थोड़े’ हैं।’ संख्यावाचक विशेषणों की व्युत्पत्ति 186. हिंदी के सब संख्यावाचक विशेषण प्राकृत के द्वारा संस्कृत से निकले हैं, जैसेμ सं. प्रा. हिं. सं. प्रा. हिं. एक एक्क एक विंशति बीसई बीस द्वि दुवे दो त्रिांशत् तीसआ तीस त्रिा तिण्णि तीन चत्वारिंशत् चत्तालीसा चालीस चतुर चत्तारि चार प×चाशत् पण्णासा पचास प×चम् प×च पाँच षष्टि सट्ठि साठ षट् छ छः सप्तति सत्तरी सत्तर सप्तम सत्त सात अशीति असीई अस्सी अष्टम् अट्ठ आठ नवति नउए नब्बे नवम् नव नौ शत सअ सौ दशम् दस दस सहस्र सह सहस्र प्रथम पठमो पहलो चतुर्थ चउत्थे चैथा द्वितीय दुइअ दूसरा प×चम पंचमौ पाँचवाँ तृतीय तइअ तीसरा षष्ठ छट्ठौ छठाँ (टी.μहिंदी के अधिकांश व्याकरणों में विशेषणों के भेद और उपभेद नहीं किए गए। इसका कारण कदाचित् वर्गीकरण के न्यायसंगत आधार का अभाव हो। विशेषणों के वर्गीकरण का कारण हम इस अध्याय के आरंभ में (दे. अंकμ147μसू.) लिख आए हैं। इनका वर्गीकरण केवल ‘भाषातत्त्व-दीपिका’ में पाया जाता है, इसलिए हम अपने किए हुए भेदों का मिलान इसी पुस्तक में दिए गए भेदों से करते हैं। इस पुस्तक में ‘संख्याविशेषण’ के पाँच भेद किए गए हैंμ(1) संख्यावाचक, (2) समूहवाचक, (3) क्रमवाचक (4) आवृत्तिवाचक और (5) संख्यांशवाचक। इनमें ‘संख्या विशेषण’ और ‘संख्यावाचक’, एक ही अर्थ के दो नाम हैं, जो क्रमशः जाति और उसकी उपजाति को दिए गए हैं। इसमें नामों की गड़बड़ के सिवा कोई लाभ नहीं है। फिर ‘संख्यावाचक’ नाम का जो एक भेद है उसका समावेश ‘संख्यावाचक’ में हो जाता है, क्योंकि दोनों भेदों के प्रयोग समान हैं। जिस प्रकार एक, दो, तीन आदि शब्द वस्तुओं की संख्या हिंदी व्याकरण ध् 111 सूचित करते हैं, उसी प्रकार, आधा, पौन, सवा आदि भी संख्या सूचित करने वाले हैं। इसके सिवा अनिश्चित संख्यावाचक विशेषण ‘भाषा-तत्त्व-दीपिका’ में स्वीकार ही नहीं किया गया है। उसके कुछ उदाहरण इस पुस्तक में ‘सामान्य सर्वनाम’ के नाम से आए हैं, परंतु उनके विशेषणीभूत प्रयोग का कहीं उल्लेख ही नहीं है। प्रत्येकबोधक विशेषण के विषय में भी ‘भाषा-तत्त्व-दीपिका’ में कुछ नहीं कहा गया है। हमने संख्यावाचक विशेषण के सब मिलाकर सात भेद नीचे लिखे अनुसार किए हैंμ संख्यावाचक निश्चित संख्यावा. अनिश्चित संख्यावा. परिमाणबोगण् ानावा. क्रमवा. आवृत्तिवा. समुदायवा. प्रत्येकबो. (1) (2) (3) (4) (5) पूर्णांकबो. अपूर्णांकबो. (6) (7) (यह वर्गीकरण भी बिलकुल निर्दोष नहीं है, परंतु इसमें प्रायः सभी संख्यावाचक विशेषण आ गए हैं; और रूप तथा अर्थ में एक वर्ग दूसरे से बहुत मिलता है।)

hindi vyAkaran_हिंदी व्याकरण - 11

दूसरा अध्याय - सर्वनाम / कामताप्रसाद गुरू

113. सर्वनाम उस विकारी शब्द को कहते हैं जो पूर्वापर संबंध से किसी भी संज्ञा के बदले में आता है, जैसे 
मैं (बोलनेवाला), 
तू (सुननेवाला), 
यह (निकटवर्ती वस्तु), 
वह (दूरवर्ती वस्तु) इत्यादि। 

(टि.μहिंदी के प्रायः सभी वैयाकरण सर्वनाम को संज्ञा का एक भेद मानते हैं। संस्कृत में ‘सर्व’ (प्रातिपदिक) के समान जिन नामों (संज्ञाओं) का रूपांतर होता है उनका एक अलग वर्ग मानकर उसका नाम ‘सर्वनाम’ रखा गया है। ‘सर्वनाम’ शब्द एक और अर्थ में भी आ सकता है। वह यह है कि सर्व (सब) नामों (संज्ञाओं) के बदले में जो शब्द आता है, उसे सर्वनाम कहते हैं। हिंदी में सर्वनाम शब्द से यही (पिछला) अर्थ लिया जाता है और इसी के अनुसार वैयाकरण सर्वनाम को संज्ञा का भेद मानते हैं। यथार्थ में सर्वनाम एक प्रकार का नाम अर्थात् संज्ञा ही है। जिस प्रकार संज्ञाओं के उपभेद व्यक्तिवाचक, जातिवाचक और भाववाचक हैं, उसी प्रकार सर्वनाम भी एक उपभेद हो सकता है, पर सर्वनाम में एक विशेष विलक्षणता है, जो संज्ञा में नहीं पाई जाती। संज्ञा से सदा उसी वस्तु का बोध होता है, जिसका वह 1. जो पदार्थ केवल ढेर के रूप में नापा-तौला जाता है, उसे द्रव्य कहते हैं; जैसे अनाज, दूध, घी, शक्कर, सोना इत्यादि। हिंदी व्याकरण ध् 75 (संज्ञा) नाम है; परंतु सर्वनाम से, पूर्वापर संबंध के अनुसार, किसी भी वस्तु का बोध हो सकता है। ‘लड़का’ शब्द से लड़के ही का बोध होता है, घर, सड़क आदि का बोध नहीं हो सकता; परंतु ‘वह’ कहने से पूर्वापर संबंध के अनुसार, लड़का घर, सड़क, हाथी, घोड़ा आदि किसी भी वस्तु का बोध हो सकता है। ‘मैं’ बोलनेवाले के नाम के बदले आता है, इसलिए जब बोलनेवाला मोहन है, तब ‘मैं’ का अर्थ मोहन है, परंतु जब बोलनेवाला खरहा है (जैसा बहुधा कथा कहानियों में होता है) तब ‘मैं’ का अर्थ खरहा होता है। सर्वनाम की इसी विलक्षणता के कारण उसे हिंदी में एक अलग शब्दभेद मानते हैं। ‘भाषातत्त्वदीपिका’ में भी सर्वनाम संज्ञा से भिन्न माना गया है; परंतु उसमें सर्वनाम का जो लक्षण दिया गया है, वह निर्दोष नहीं है। ‘नाम को एक बार कहकर फिर उसकी जगह जो शब्द आता है, उसे सर्वनाम कहते हैं।’ यह लक्षण ‘मैं’, ‘तू’, ‘कौन’ आदि सर्वनामों में घटित नहीं होता; इसलिए इसमें अव्याप्ति दोष है; और कहीं-कहीं यह संज्ञाओं में भी घटित हो सकता है, इसलिए इसमें अतिव्याप्ति दोष भी है। एक ही संज्ञा का उपयोग बार-बार करने से भाषा की हीनता सूचित होती है, इसलिए एक संज्ञा के बदले उसी अर्थ की दूसरी संज्ञा का उपयोग करने की चाल है। यह बात छंद के विचार से कविता में बहुधा होती है; जैसेμमनुष्य के बदले ‘मानव’, ‘नर’ आदि शब्द लिखे जाते हैं। सर्वनाम के पूर्वोक्त लक्षण के अनुसार इन सब पर्यावाची शब्दों को भी सर्वनाम कहना पड़ेगा। यद्यपि सर्वनाम के कारण संज्ञा को बार-बार नहीं दुहराना पड़ता है, तथापि सर्वनाम का यह उपयोग उसका असाधारण धर्म नहीं है। भाषाचंद्रोदय में ‘सर्वनाम’ के लिए ‘संज्ञाप्रतिनिधि’ शब्द का उपयोग किया गया है और संज्ञाप्रतिनिधि के कई भेदों में एक का नाम ‘सर्वनाम’ रखा गया है। सर्वनाम के भेदों की मीमांसा इस अध्याय के अंत में की जायगी; परंतु ‘संज्ञाप्रतिनिधि’ शब्द के विषय में केवल यही कहा जा सकता है कि हिंदी में ‘सर्वनाम’ शब्द इतना रूढ़ हो गया है कि उसे बदलने से कोई लाभ नहीं है। 

114. हिंदी में सब मिलाकर 11 सर्वनाम हैंμमैं, तू, आप, यह, वह, सो, जो, कोई, कुछ, कौन, क्या। 

115. प्रयोग के अनुसार सर्वनामों के छह भेद हैंμ 
(1) पुरुषवाचकμमैं, तू, आप (आदरसूचक)। 
(2) निजवाचकμआप। 
(3) निश्चयवाचकμयह, वह, सो। 
(4) संबंधवाचकμजो। 
(5) प्रश्नवाचकμकौन, क्या। 
(6) अनिश्चयवाचकμकोई, कुछ। 

116. वक्ता अथवा लेखक की दृष्टि से संपूर्ण सृष्टि के तीन भाग किए जाते 76 ध् हिंदी व्याकरण हैंμपहला, स्वयं वक्ता वा लेखक; दूसरा श्रोता, किंवा पाठक और तीसरा, कथा विषय अर्थात् वक्ता और श्रोता को छोड़कर और सब। सृष्टि के इन सब रूपों को व्याकरण में पुरुष कहते हैं और ये क्रमशः उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष और अन्य पुरुष कहलाते हैं। इन तीनों पुरुषों में उत्तम और मध्यम पुरुष ही प्रधान हैं। क्योंकि इनका अर्थ निश्चित रहता है। अन्य पुरुष का अर्थ अनिश्चित होने के कारण उसमें बाकी की सृष्टि के अर्थ का समावेश होता है। उत्तम पुरुष ‘मैं’ और मध्यम पुरुष ‘तू’ को छोड़कर शेष सर्वनाम और सब संज्ञाएँ अन्य पुरुष में आती हैं। इस अनिश्चित वस्तुसमूह को संक्षेप में व्यक्त करने के लिए ‘वह’ सर्वनाम को अन्य पुरुष के उदाहरण के लिए ले लेते हैं। सर्वनामों के तीनों पुरुषों के उदाहरण ये हैंμउत्तम पुरुषμमैं; मध्यम पुरुषμ तू, आप (आदरसूचक); अन्य पुरुषμयह, वह, आप (आदरसूचक) सो, जो, कौन, क्या, कोई, कुछ। (सब संज्ञाएँ अन्य पुरुष हैं।) सब पुरुष-वाचक-आप (निजवाचक)। (सू.μ(1) भाषा भास्कर और दूसरे हिंदी व्याकरणों में ‘आप’ शब्द ‘आदरसूचक’ नाम से एक अलग वर्ग में गिना गया है, परंतु व्युत्पत्ति के अनुसार, (सं.μआत्मन्, प्रा.μअप्प) ‘आप’, यथार्थ में, निजवाचक है और आदरसूचकता उसका एक विशेष प्रयोग है। आदरसूचक ‘आप’ मध्यम और अन्य पुरुष सर्वनामों के लिए आता है, इसलिए उनकी गिनती पुरुषवाचक सर्वनामों में ही होनी चाहिए। निजवाचक ‘आप’ अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग पुरुषों के बदले आ सकता है; इसलिए ऊपर सर्वनामों के वर्गीकरण में यही निजवाचक ‘आप’ ‘सर्व-पुरुष-वाचक’ कहा गया है। निजवाचक ‘आप’ के समानार्थक ‘स्वयं और स्वतः’ हैं; इनका प्रयोग बहुधा क्रियाविशेषण के समान होता है (दे. अंकμ125 ऋ)। (2) ‘मैं’, ‘तू’ और आप (म. पु.) को छोड़कर सर्वनामों के जो और भेद हैं, वे सब अन्य पुरुष सर्वनामों के ही भेद हैं। मैं, तू और आप (म. पु.) सर्वनामों के दूसरे भेदों में नहीं आते, इसलिए ये ही तीन सर्वनाम विशेषण पुरुषवाचक हैं। वैसे तो प्रायः सभी सर्वनाम पुरुषवाचक कहे जा सकते हैं, क्योंकि उनसे व्याकरण के पुरुषों का बोध होता है, परंतु दूसरे सर्वनामों में उत्तम और मध्यम नहीं होते, इसलिए उत्तम और मध्यम पुरुष ही प्रधान पुरुषवाचक हैं और बाकी सर्वनाम अप्रधान पुरुषवाचक हैं। सर्वनामों के अर्थ और प्रयोग का विचार करने में सुभीते के लिए कहीं-कहीं उनके रूपांतरों (लिंग, वचन, कारक) का (जो दूसरे प्रकरण का विषय है) उल्लेख करना आवश्यक है। 

117. मैंμउ. पु. (एकवचन)। (अ) जब वक्ता या लेखक केवल अपने ही संबंध में कुछ विधान करता है तब वह इस सर्वनाम का प्रयोग करता है। जैसेμभाषाबद्ध करब मैं सोई। (राम.)। जो मैं ही कृतार्थ नहीं तो फिर और कौन हो सकता है? (गुटका)। ‘यह थैली मुझे मिली।’ (आ) अपने से बड़े लोगों के साथ बोलने में अथवा देवता से प्रार्थना करने हिंदी व्याकरण ध् 77 में, जैसेμ‘सारथीμअब मैंने भी तपोवन के चिन्ह (चिद्द) देखे’ (शकु.)। ‘हरि.μ पितः, मैं सावधान हूँ’ (सत्य.)। (इ) स्त्राी अपने लिए बहुधा ‘मैं’ का ही प्रयोग करती है; जैसेμशकुंतलाμमैं सच्ची क्या कहूँ’ (शकु.)। ‘रा.μअरी! आज मैंने ऐसे बुरे-बुरे सपने देखे कि जब से सो के उठी हूँ, कलेजा काँप रहा है’ (सत्य.)। (दे. अंकμ11 ऊ)। 

118. हमμउ. पु. (बहुवचन)। इस बहुवचन का अर्थ संज्ञा के बहुवचन से भिन्न है। ‘लड़के’ शब्द एक से अधिक लड़कों का सूचक है; परंतु ‘हम’ शब्द एक से अधिक ‘मैं’ (बोलनेवालों) का सूचक नहीं है, क्योंकि एक साथ गाने या प्रार्थना करने के सिवा (अथवा सबकी ओर से लिखे हुए लेख में हस्ताक्षर करने के सिवा) एक से अधिक लोग मिलकर प्रायः कभी नहीं बोल सकते। ऐसी अवस्था में ‘हम’ का ठीक अर्थ यही है कि वक्ता अपने साथियों की ओर से प्रतिनिधि होकर अपने तथा अपने साथियों के विचार एक साथ प्रकट करता है। (अ) संपादक और ग्रंथकार लोग अपने लिए बहुधा उत्तम पुरुष बहुवचन का प्रयोग करते हैं; जैसेμ‘हमने एक ही बात को दो-दो, तीन-तीन तरह से लिखा है।’ (स्वा.)। ‘हम पहले भाग के आरंभ में लिख आए हैं’ (इति.)। (आ) बड़े-बड़े अधिकारी और राजा महाराजा; जैसेμ‘इसलिए अब हम इश्तहार देते हैं (इति.)। ‘नाम.μयही तो हम भी कहते हैं’ (सत्य.)। ‘दुष्यंतμतुम्हारे देखने ही से हमारा सत्कार हो गया।’ (शकु.)। (इ) अपने कुटुम्ब, देश अथवा मनुष्य जाति के संबंध में; जैसेμ‘हम योग पाकर भी उसे उपयोग में लाते नहीं’ (भारत.)। हम वनवासियों ने ऐसे भूषण आगे कभी न देखे थे’ (शकु.)। ‘हवा के बिना हम पल भर भी नहीं जी सकते।’ (ई) कभी-कभी अभिमान अथवा क्रोध में, जैसेμ‘वि.μहम आधी दक्षिणा लेके क्या करें’ (सत्य.)। ‘मांडव्यμइस मृगयाशील राजा की मित्राता से हम तो बड़े दुखी हैं’ (शकु.)। (सू.μहिंदी में ‘मैं’ और ‘हम’ के प्रयोग का बहुत सा अंतर आधुनिक है। देहाती लोग बहुधा ‘हम’ ही बोलते हैं, ‘मैं’ नहीं बोलते। प्रेमसागर और रामचरित मानस में ‘हम’ के सब प्रयोग नहीं मिलते। अँगरेजी में ‘मैं’ के बदले ‘हम’ का उपयोग करना भूल समझा जाता है, परंतु हिंदी में बहुधा ‘मैं’ के बदले ‘हम’ आता है। ‘मैं’ और ‘हम’ के प्रयोग में इतनी अस्थिरता है कि एक बार जिसके लिए ‘मैं’ आता है, उसी के लिए उसी अर्थ में फिर ‘हम’ का उपयोग होता है; जैसेμ‘नाμराम राम! भला, आपके आने से हम क्यों जायँगे। मैं तो जाने ही को था कि इतने में आप आ गए (सत्य.)। दुष्यंतμअच्छा, हमारा संदेशा यथार्थ भुगता दीजो। मैं तपस्वियों की रक्षा को जाता हूँ (शकु.)। यह न होना चाहिए। 78 ध् हिंदी व्याकरण (उ) कभी-कभी एक ही वाक्य में ‘मैं’ और ‘हम’ एक ही पुरुष के लिए क्रमशः व्यक्ति और प्रतिनिधि के अर्थ में आते हैं; जैसेμ‘कुंभलीकμमुझे क्या दोष है, यह तो हमारा कुलधर्म है’ (शकु.)। मैं चाहता हूँ कि आगे को ऐसी सूरत न हो और हम सब एकचित्त होकर रहें (परी.)। (ऊ) स्त्राी अपने ही लिए ‘हम’ का उपयोग बहुधा कम करती है (दे. अंकμ117 इ.) पर स्त्राीलिंग ‘हम’ के साथ कभी-कभी पंुल्लिंग क्रिया आती है; जैसेμगौतमीμलो, अब निधड़क बातचीत करो’ हम जाते हैं।’ (शकु.)। ‘रानीμमहाराज, अब हम महल में जाते हैं’ (कर्पूर)। (ओ) साधु संत अपने लिए ‘मैं’ वा ‘हम’ का प्रयोग न करके अपने लिए बहुधा ‘अपने राम’ बोलते हैं; जैसेμअब अपने राम जानेवाले हैं। (औ) ‘हम’ से बहुत्व का बोध कराने के लिए उसके साथ बहुधा ‘लोग’ शब्द लगा देते हैं; जैसे ः ‘ह.μआर्य, हमलोग तो क्षत्रिाय हैं, हम दो बात कहाँ से जाने?’ (सत्य.)। 

119. तू-मध्यम पुरुष (एकवचन) (ग्राम्य-तैं)। ‘तू’ शब्द से निरादर वा हलकापन प्रकट होता है; इसलिए हिंदी में बहुधा एक व्यक्ति के लिए भी ‘तुम’ का प्रयोग करते हैं। ‘तू’ का प्रयोग बहुधा नीचे लिखे अर्थों में होता हैμ (अ) देवता के लिए जैसेμदेव, तू दयालु, दीन हौं; तू दानी, हौं भिखारी’ (विनय.)। ‘दीनबंधु’ (तू) मुझ डूबते हुए को बचा’ (गुटका.) (आ)छोटे लड़के अथवा चेले के लिए (प्यार में); ‘एक तपस्विनीμअरे हठीले बालक, तू इस वन के पशुओं को क्यों सताता है?’ (शकु.)। ‘उ.μतो तू चल, आगे-आगे भीड़ हटाता चल’ (सत्य.)। (इ) परम मित्रा के लिए; जैसेμ‘अनसूयाμसखी तू क्या कहती है’ (शकु.)। ‘दुष्यंतμसखा, तुझसे भी तो माता कहकर बोली हैं।’ (सू.μछोटी अवस्था के भाई बहन आपस में ‘तू’ का प्रयोग करते हैं। कहीं छोटे लड़के प्यार में माँ से ‘तू’ कहते हैं) (ई) अवस्था और अधिकार में अपने से छोटे के लिए (परिचय में); जैसेμ‘रानी-मालती, यह रक्षाबंधन तू सँभाल के अपने पास रख’ (सत्य.)। ‘दुष्यंतμ(द्वारपाल से) पर्वतायन, तू अपने काम में असावधानी मत करियो’ (शकु.)। (उ) तिरस्कार अथवा क्रोध में किसी से, जैसे जरासंध श्रीकृष्णचंद्र से अति अभिमान कर कहने लगा, अरेμतू मेरे सोंही से भाग जा, मैं तुझे क्या मारूँ!’ (प्रेम.)। ‘वि.μबोल, अभी तैने मुझे पहचाना कि नहीं?’ (सत्य.)। 

120. तुमμमध्यमपुरुष (बहुवचन)। हिंदी व्याकरण ध् 79 यद्यपि ‘हम’ के समान ‘तुम’ बहुवचन है, तथापि शिष्टाचार के अनुरोध से इसका प्रयोग एक ही मनुष्य से बोलने में होता है। बहुत्व के लिए ‘तुम’ के साथ बहुधा ‘लोग’ शब्द लगा देते हैंμजैसेμ‘मित्रा, तुम बड़े निठुर हो’ (परी.)। ‘तुम लोग अभी तक कहाँ थे?’ (अ) तिरस्कार और क्रोध को छोड़कर शेष अर्थों में ‘तू’ के बदले बहुधा ‘तुम’ का उपयोग होता है; जैसेμ‘दुष्यंतμहे रैवतक, तुम सेनापति को बुलाओ’ (शकु.)। ‘आशुतोष तुम अवढर दानी।’ (राम.)। ‘उ.μपुत्राी, कहो तुम कौन-कौन सेवा करोगी’ (सत्य.)। (आ) ‘हम’ के साथ ‘तुम’ के बदले ‘तू’ आता है; जैसेμ‘दोनों प्यादेμतो तू हमारा मित्रा है। हम तुम साथ ही साथ हाट को चलें (शकु.)। (इ) आदर के लिए ‘तुम’ के बदले ‘आप’ आता है (दे. अंकμ123)। 

121. वहμ अन्य पुरुष (एकवचन)। (यह, जो, कोई, कौन इत्यादि सब सर्वनाम (और सब संज्ञाएँ) अन्य पुरुष हैं। यहाँ अन्य पुरुष के उदाहरण के लिए केवल ‘वह’ लिया गया है। हिंदी में आदर के लिए बहुधा बहुवचन सर्वनामों का प्रयोग किया जाता है। आदर का विचार छोड़कर ‘वह’ का प्रयोग नीचे लिखे अर्थों में होता हैμ (अ) किसी एक प्राणी, पदार्थ वा धर्म के विषय में बोलने के लिए, जैसेμना. μनिस्संदेह हरिश्चंद्र महाशय हैं। उसके आशय बहुत उदार हैं’ (सत्य.)। ‘जैसी दुर्दशा उसकी हुई, वह सबको विदित है’ (गुटका.)। (आ) बड़े दरजे के आदमी के विषय में तिरस्कार दिखाने के लिए, जैसेμ‘ वह (श्रीकृष्ण) तो गँवार ग्वाल है’ (प्रेम)। ‘इ.μराजा हरिश्चंद्र का प्रसंग निकला था सो उन्होंने उसकी बड़ी स्तुति की’ (सत्य.)। (इ) आदर और बहुत्व के लिए (दे. अंकμ122)। 

122. वेμअन्य पुरुष (बहुवचन)। कोई-कोई इसे ‘वह’ लिखते हैं। कवायद उर्दू में इसका रूप ‘वे’ लिखा है जिससे यह अनुमान नहीं होता कि इसका प्रयोग उर्दू की नकल है। पुस्तकों में भी बहुधा ‘वे’ पाया जाता है। इसलिए बहुवचन का शुद्ध रूप ‘वे’ है, ‘वह’ नहीं। (अ) एक से अधिक प्राणियों, पदार्थों वा धर्मों के विषय में बोलने के लिए ‘वे’ (वा ‘वह’) आता है, जैसेμ‘लड़की तो रघुवंशियों के भी होती हैं; पर वे जिलाते कदापि नहीं’ (गुटका.)। ‘ऐसी बातें वे हैं’ (स्वा.)। ‘वह सौदागर की सब दूकान को अपने घर ले जाया चाहते हैं’ (परी.)। (आ) एक ही व्यक्ति के विषय में आदर प्रकट करने के लिए, जैसेμवे (कालिदास) असामान्य वैयाकरण थे’ (रघु.)। ‘क्या अच्छा होता जो वह इस काम को कर जाते’ (रत्ना.)। ‘जो बातें मुनि के पीछे हुईं सो उनसे कह दी’? (शकु.)। (सू.μऐतिहासिक पुरुषों के प्रति आदर प्रकट करने के संबंध में हिंदी में बड़ा 80 ध् हिंदी व्याकरण गड़बड़ है। श्रीधर भाषाकोष में कई कवियों के संक्षिप्त चरित दिए गए हैं, उनमें कबीर के लिए एकवचन का और शेष के लिए बहुवचन का प्रयोग किया गया है। राजा शिवप्रसाद ने इतिहासतिमिर नाशक में राम शंकराचार्य और टॉड साहब के लिए बहुवचन प्रयोग किया है और बुद्ध, अकबर, धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर के लिए एकवचन लिखा है। इन उदाहरणों से कोई निश्चित नियम नहीं बनाया जा सकता। तथापि यह बात जान पड़ती है कि आदर के लिए पात्रा की जाति, गुण, पद और शील का विचार अवश्य किया जाता है। ऐतिहासिक पुरुषों के प्रति आजकल पहले की अपेक्षा अधिक आदर दिखाया जाता है; और यह आदर बुद्धि विदेशी ऐतिहासिक पुरुषों के लिए भी कई अंशों में पायी जाती है। आदर का प्रश्न छोड़कर, ऐतिहासिक पुरुषों के लिए एकवचन ही का प्रयोग करना चाहिए। 

123. आपμ (‘तुम’ वा ‘वे’ के बदले)μमध्यम वा अन्य पुरुष (बहुवचन)। यह पुरुषवाचक ‘आप’ प्रयोग में निजवाचक ‘आप’ (दे. अंकμ125) से भिन्न है। इसका प्रयोग मध्यम और अन्य पुरुष बहुवचन में आदर के लिए होता है।1 प्राचीन कविता में आदरसूचक ‘आप’ का प्रयोग बहुत कम पाया जाता है। (अ) अपने से बड़े दरजेवाले मनुष्य के लिए ‘तुम’ के बदले ‘आप’ का प्रयोग शिष्ट और आवश्यक समझा जाता है; जैसेμ‘स.μभला, आपने इसकी शांति का भी कुछ उपाय किया है?’ (सत्य.)। ‘तपस्वीμहे पुरुकुलदीपक आपको यही उचित है।’ (शकु.)। ‘आए आपु भली करी’ (संत.)। (आ) बराबरवाले अपने से कुछ छोटे दरजे के मनुष्य के लिए ‘तुम’ के बदले बहुधा ‘आप’ कहने की प्रथा है; जैसेμ‘इं.μभला, आप उदार या महाशय किसे कहते हैं?’ (सत्य.)। ‘जब आप पूरी बात ही न सुनें तो मैं क्या जवाब दूँ’ (परी.)। (इ) आदर के साथ बहुत्व के बोध के लिए ‘आप’ के साथ बहुधा ‘लोग’ लगा देते हैं, जैसेμ‘ह.μआप लोग मेरे सिर आँखों पर हैं’ (सत्य.)। ‘इस विषय में आप लोगों की क्या राय है’? (ई) ‘आप’ शब्द की अपेक्षा अधिक आदर सूचित करने के लिए बड़े पदाधिकारियों के प्रति श्रीमान्, महाराज, सरकार, हुजूर आदि शब्दों का प्रयोग होता है; जैसेμ‘सार.μमैं रास खींचता हूँ; महाराज उतर लें’ (शकु.) ‘मुझे श्रीमान् के दर्शनों की लालसा थी सो आज पूरी हुई।’ ‘जो हुजूर की राय सो मेरी राय।’ स्त्रिायों के प्रति अतिशय आदर प्रदर्शित करने के लिए श्रीमती, ‘देवी’ आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है; जैसेμ‘तब से श्रीमती के शिक्षा-क्रम में विघ्न पड़ने लगा’ (हिं. को.)। (सू.μजहाँ ‘आप’ का प्रयोग होना चाहिए वहाँ ‘तुम’ या हुजूर’ कहना और जहाँ ‘तुम’ कहना चाहिए, वहाँ ‘आप’ या ‘तू’ कहना अनुचित है; क्योंकि इससे श्रोता 1. संस्कृत में आदरसूचक ‘आप’ के अर्थ में ‘भवान्’ शब्द आता है; और उसका प्रयोग केवल अन्य पुरुष एकवचन में होता है; जैसेμ‘भवान् अपि अवैति’ (आप भी जानते हैं)। हिंदी व्याकरण ध् 81 का अपमान होता है। एक ही प्रसंग में ‘आप’ और ‘तुम’, ‘महाराज’ और ‘आप’ कहना असंगत है; जैसेμ‘जिस बात की चिंता महाराज को है सो कभी न हुई होगी; क्योंकि तपोवन के विघ्न तो केवल आपके धनुष की टंकार ही से मिट जाते हैं।’ (शकु.)। ‘आपने बड़े प्यार से कहा कि आ बच्चे, पहले तू ही पानी पी ले। उसने तुम्हें विदेशी जान तुम्हारे हाथ से जल न पीया।’ तथा.) (उ) आदर की पराकाष्ठा सूचित करने के लिए वक्ता या लेखक अपने लिए दास, सेवक, फिदवी (कचहरी की भाषा में), ‘कमतरीन’ (उर्दू) आदि शब्दों में से किसी एक का प्रयोग करता है; जैसेμ‘सि.μकहिए यह दास आपके कौन काम आ सकता है?’ (मुद्रा.)। ‘हुजूर से, फिदवी की यह अर्ज है।’ (ऊ) मध्यम पुरुष ‘आप’ के साथ अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया आती है, परंतु कहीं-कहीं परिचय, बराबरी अथवा लघुता के विचार से मध्यम पुरुष बहुवचन क्रिया का भी प्रयोग होता है; जैसेμ‘ह.μ आप मोल लोगे?’ (सत्य.)। ऐसे समय में आप साथ न दोगे तो और कौन देगा?’ (परी.)। ‘दो ब्राह्मणμआप अगलों की रीति पर चलते हो।’ (शकु.)। यह प्रयोग शिष्ट नहीं है। (ओ) अन्य पुरुष में आदर के लिए ‘वे’ के बदले कभी-कभी ‘आप’ आता है। अन्य पुरुष ‘आप’ के साथ क्रिया सदा अन्य पुरुष बहुवचन में रहती है। उदाहरणμ ‘श्रीमती का गत मास इंदौर में देहांत हो गया। आप कई वर्षों से बीमार थीं।’ (वो) 

124. अप्रधान पुरुषवाचक सर्वनामों के नीचे लिखे पाँच भेद हैंμ (1) निजवाचकμआप। (2) निश्चयवाचकμयह, वह, सो। (3) अनिश्चयवाचकμकोई, कुछ। (4) संबंधवाचकμजो। (5) प्रश्नवाचकμकौन, क्या। 

125. आप (निजवाचक)। प्रयोग में निजवाचक ‘आप’ पुरुषवाचक (आदरसूचक) ‘आप’ से भिन्न है। पुरुषवाचक ‘आप’ एक का वाचक होकर भी नित्य बहुवचन में आता है; पर निजवाचक ‘आप’ एक ही रूप से दोनों वचनों में आता है। पुरुषवाचक ‘आप’ केवल मध्यम और अन्य पुरुष में आता है; परंतु निजवाचक ‘आप’ का प्रयोग तीनों पुरुष में होता है। आदरसूचक ‘आप’ वाक्य में अकेला आता है, किंतु निजवाचक ‘आप’ दूसरे सर्वनामों के संबंध से आता है। ‘आप’ के दोनों प्रयोगों में रूपांतर का भी भेद है। दे. अंकμ324-325)। निजवाचक ‘आप’ का प्रयोग नीचे लिखे अर्थों में होता हैμ (अ) किसी संज्ञा या सर्वनाम के अवधारण के लिए; जैसेμमैं आप वहीं से आया हूँ’ (परी.)। ‘बनते कभी हम आप योगी’ (भारत.)। 82 ध् हिंदी व्याकरण (आ) दूसरे व्यक्ति के निराकरण के लिए, जैसेμ‘श्रीकृष्ण जी ने ब्राह्मण को विदा किया और आप चलने का विचार करने लगे’ (प्रेम.)। ‘वह अपने को सुधार रहा है।’ (इ) अवधारण के अर्थ में ‘आप’ के साथ कभी-कभी ही जोड़ देते हैं, जैसेμ नटीμमैं तो आप ही आती थी’ (सत्य.)। ‘देत चाप आपहि चढ़ि गयऊ’ (राम.)। ‘वह अपने पात्रा के संपूर्ण गुण अपने ही में भरे हुए अनुमान करने लगता है।’ (सर.)। (ई) कभी-कभी ‘आप’ के साथ उसका रूप अपना जोड़ देते हैं, जैसेμ‘किसी दिन मैं न आप अपने को भूल जाऊँ (शकु.)।’ ‘क्या वह अपने आप झुका है?’ (तथा) ‘राजपूत वीर अपने आपको भूल गए।’ (उ) ‘आप शब्द कभी-कभी वाक्य में अकेला आता है और अन्य पुरुष का बोधक होता है; जैसेμआपने कुछ उपार्जन किया ही नहीं, जो था वह नाश हो गया (सत्य.)। ‘होम करन लागे मुनि झारी। आप रहे मख की रखवारी।’ (ऊ) सर्वसाधारण के अर्थ में भी ‘आप’ आता है, जैसेμ ‘आप भला तो जग भला’ (कहा.)। ‘अपने से बड़े का आदर करना उचित है!’ (ऋ) ‘आप’ के बदले या उसके साथ बहुधा ‘खुद’ (उर्दू) ‘स्वयं’ वा ‘स्वतः’ (संस्कृत) का प्रयोग होता है। स्वयं, स्वतः और खुद हिंदी में अव्यय हैं और इनका प्रयोग बहुधा क्रियाविशेषण के समान होता है। आदरसूचक ‘आप’ के साथ द्विरुक्ति के निवारण के लिए इनमें से किसी एक का प्रयोग करना आवश्यक है; जैसेμ‘आप खुद यह बात समझ सकते हैं।’ ‘हम आज अपने आपको भी हैं स्वयं भूले हुए’ (भारत.)। ‘सुल्तान स्वतः वहाँ गए थे’ (हित.)। हर आदमी खुद अपने ही को प्रचलित रीति-रस्मों का कारण बतलावे’ (स्वा.)। (ए) कभी-कभी ‘आप’ के साथ निज (विशेषण) संज्ञा के समान आता है, पर इसका प्रयोग केवल संबंधकारक में होता है। जैसेμ‘हम तुम्हें एक अपने निज के काम में भेजा चाहते हैं’ (मुद्रा.)। (ऐ) ‘आप शब्द से बना आपस’ ‘परस्पर’ के अर्थ में आता है। इसका प्रयोग केवल संबंध और अधिकारण कारक में होता है, जैसेμ‘एक दूसरे की राय आपस में नहीं मिलती’ (स्वा.)। ‘आपस की फूट बुरी होती है।’ (ओ) ‘आप ही’, ‘अपने आप’, ‘आपसे आप’ और ‘आप ही आप’ का अर्थ ‘मन से वा स्वभाव से’ होता है और इनका प्रयोग क्रियाविशेषण वाक्यांशों के समान होता है; जैसेμ‘ये मानवी यंत्रा आप ही आप घर बनाने लगे।’ (स्वा.)। ‘इं.μ( आप ही आप) नारद जी सारी पृथ्वी पर इधर-उधर फिरा करते हैं’ (सत्य.)। ‘मेरा दिल आप से आप उमड़ा आता है’ (परी.)। 

126. जिस सर्वनाम से वक्ता के पास अथवा दूर की किसी वस्तु का बोध हिंदी व्याकरण ध् 83 होता है, उसे निश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं। निश्चयवाचक सर्वनाम तीन हैंμयह, वह, सो। 

127. यहμएकवचन। इसका प्रयोग नीचे लिखे स्थानों में होता हैμ (अ) पास की किसी वस्तु के विषय में बोलने के लिए; जैसेμ‘ यह किसका पराक्रमी बालक है?’ (शकु.)। ‘यह कोई नया नियम नहीं है’ (स्वा.)। (आ) पहले कही हुई संज्ञा या संज्ञावाक्यांशों के बदले; जैसेμ‘माधवीलता तो मेरी बहिन है, इसे क्यों न सींचती’ (शकु.)। ‘भला सत्य धर्म पालना क्या हँसी-खेल है? यह आप ऐसे महात्माओं ही का काम है’ (सत्य.)। (इ) पहले कहे हुए वाक्य के स्थान में, जैसेμ‘सिंह को मार मणि ले कोई जंतु एक अति डरावनी आड़ी गुफा में गया; यह सब हम अपनी आँखों देख आए’ (प्रेम)। ‘मुझको आपके कहने का कभी कुछ रंज नहीं होता। इसके सिवाय मुझे इस अवसर पर आपकी कुछ सेवा करनी चाहिए थी’ (परी.)। (ई) पीछे आनेवाले वाक्य के स्थान में; जैसेμ‘उन्होंने अब यह चाहा कि अधिकारियों को प्रजा ही नियत किया करे’ (स्वा.)। ‘मुझे इससे बड़ा आनंद है कि भारतेंदु जी की सबसे पहले छेड़ी हुई यह पुस्तक आज पूरी हो गई’ (रत्ना.)। (सू.μऊपर के दूसरे वाक्य में जो ‘यह’ शब्द आया है, वह यहाँ सर्वनाम नहीं, किंतु विशेषण है; क्योंकि वह ‘पुस्तक’ संज्ञा की विशेषता बताता है। सर्वनामों के विशेषणीभूत प्रयोगों का विचार आगे (तीसरे अध्याय में) किया जायगा। (उ) कभी कभी संज्ञा या संज्ञावाक्यांश कहकर तुरंत ही उसके बदले निश्चय के अर्थ में ‘यह’ का प्रयोग होता है; जैसेμ‘राम यह व्यक्तिवाचक संज्ञा है।’ ‘अधिकार पाकर कष्ट देना, यह बड़ों को शोभा नहीं देता’ (सत्य)। ‘शास्त्राों की बात में कविता का दखल समझना, यह भी धर्म के विरुद्ध है’ (इति.)। (सू.μइस प्रकार की (मराठी प्रभावित) रचना का प्रचार घट रहा है।) (ऊ) कभी-कभी यह क्रियाविशेषण के समान आता है और उसका अर्थ अभी वा अब होता है, जैसेμ‘लीजिए महाराज यह मैं चला’ (मुद्रा.)। ‘यह तो आप मुझको लज्जित करते हैं’ (परी.)। (ओ) आदर और बहुत्व के लिए (दे. अंकμ128)। 

128. येμबहुवचन। ‘ये’ ‘यह’ का बहुवचन है। कोई-कोई लेखक बहुवचन में भी ‘यह’ लिखते हैं (दे. अंकμ122)। ‘ये’ (और कभी-कभी ‘यह’) का प्रयोग आदर के लिए भी होता है, जैसेμ‘ये भी तो उसी का गुण गाते हैं’ (सत्य.)। ये तेरे तप के फल कदापि नहीं; इनको तो इस पेड़ पर तेरे अहंकार ने लगाया है’ (गुटका.)। ‘ये वे ही हैं जिनसे इंद्र और बावन अवतार उत्पन्न हुए’ (शकु.)। 84 ध् हिंदी व्याकरण (अ) ‘ये’ के बदले आदर के लिए ‘आप’ का प्रयोग केवल बोलने में होता है और इसके लिए आदरपात्रा की ओर हाथ बढ़ाकर संकेत करते हैं। 

129. वह (एकवचन), वे (बहुवचन)। हिंदी में कोई विशेष अन्य पुरुष सर्वनाम नहीं है। उसके बदले दूरवर्ती निश्चयवाचक ‘वह’ आता है। इस सर्वनाम के प्रयोग अन्य पुरुष के विवेचन में बता दिए गए हैं। (दे. अंकμ121-122)। इससे दूर की वस्तु का बोध होता है। (अ) ‘यह और ‘ये’ तथा ‘वह’ और ‘वे’ के प्रयोग में बहुधा स्थिरता नहीं पाई जाती। एक बार आदर वा बहुत्व के लिए किसी एक शब्द का प्रयोग करके लेखक लोग फिर उसी अर्थ में उस शब्द का दूसरा रूप लाते हैं; जैसेμ‘यह टिड्डी दल की तरह इतने दाग कहाँ से आए? ये दाग वे दुर्वचन हैं जो तेरे मुख से निकला किए हैं। वह सब लाल-लाल फल मेरे दान से लगे हैं’ (गुटका.)। ‘ये सब बातें हरिश्चंद्र में सहज हैं।’ ‘अरे यह कौन देवता बड़े प्रसन्न होकर श्मशान पर एकत्रा हो रहे हैं’ (सत्य.)। (सू.μहमारी समझ में पहला रूप केवल आदर के लिए और दूसरा रूप बहुत्व के लिए लाना ठीक है।) (आ) पहले कही हुई वस्तुओं में से पहली के लिए ‘वह’ और पिछली के लिए ‘यह’ आता है; जैसेμ‘महात्मा और दुरात्मा में इतना ही भेद है कि उनके मन, वचन और कर्म एक रहते हैं, इनके भिन्न-भिन्न’ (सत्य.)। कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय। वह खाये बौरात हैं यह पाये बौरायड्ड (सत्य.) (इ) जिस वस्तु के संबंध में एक बार ‘यह’ आता है उसी के लिए कभी-कभी लेखक लोग असावधानी से तुरंत ही ‘वह’ लाते हैं; जैसेμ‘भला महाराज, जब यह ऐसे दानी हैं तो उनकी लक्ष्मी कैसे स्थिर है?’ (सत्य.)। जब मैं इन पेड़ों के पास से आया था तब तो उनमें फल-फूल भी नहीं था।’ (गुटका.) (सू.μसर्वनाम के प्रयोग में ऐसी अस्थिरता से आशय समझने में कठिनाई होती है और यह प्रयोग दूषित भी है।) (ई) ‘यह’ के समान (दे. अंकμ127 ऊ) ‘वह’ भी कभी-कभी क्रियाविशेषण की नाईं प्रयुक्त होता है और उस समय उसका अर्थ ‘वहाँ’ वा ‘इतना’ होता है, जैसेμ‘नौकर; वह जा रहा है।’ ‘लोगों ने चोर को वह मारा कि बेचारा अधमरा हो गया।’ 

130. सोμ (दोनों वचन)। यह सर्वनाम बहुधा संबंधवाचक सर्वनाम ‘जो’ के साथ आता है (दे. अंकμ134)। और इसका अर्थ संज्ञा के वचन के अनुसार ‘वह’ वा ‘वे’ होता है; ‘जैसेμ‘ जिस बात की चिंता महाराज को है सो (वह) कभी न हुई होगी।’ ‘जिन पौधों को तू सींच चुकी है सो (वे) तो इसी ग्रीष्म ऋतु से फूलेंगे’ (शकु.)। ‘आप जो न करो सो थोड़ा है’ (मुद्रा.)। हिंदी व्याकरण ध् 85 (अ) ‘वह’ वा ‘वे’ के समान ‘सो’ अलग वाक्य में नहीं आता और न उसका प्रयोग ‘जो’ के पहले होता है; परंतु कविता में बहुधा इन नियमों का उल्लंघन हो जाता है; जैसेμ ‘सो ताको सागर जहाँ जाकी प्यास बुझाय’। (सत.) ‘सो सुनि भयउ भूप उर सोचू।’ (राम.) (आ) ‘सो’ कभी-कभी समुच्चयबोधक के समान उपयोग में आता है और उसका अर्थ ‘इसलिए’ या ‘तब’ होता है। जैसेμ‘तैने भी उसका नाम कभी नहीं लिया सो क्या तू भी उसे मेरी भाँति भूल गया?’ (शकु.)। ‘मलयकेतु हम लोगों से लड़ने के लिए उद्यत हो रहा है; सो यह लड़ाई के उद्योग का समय है’ (मुद्रा.)। 

131. जिस सर्वनाम से किसी विशेष वस्तु का बोध नहीं होता, उसे अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं। अनिश्चयवाचक सर्वनाम दो हैंμकोई और कुछ। ‘कोई’ और ‘कुछ’ में साधारण अंतर यह है कि ‘कोई’ पुरुष के लिए और ‘कुछ’ पदार्थ वा धर्म के लिए आता है। 

132. कोईμ (दोनों वचन) इसका प्रयोग एकवचन में बहुधा नीचे लिखे अर्थों में होता हैμ (अ) किसी अज्ञात पुरुष या बड़े जंतु के लिए; जैसेμ‘ऐसा न हो कि कोई आ जाए’ (सत्य.)। ‘दरवाजे पर कोई खड़ा है।’ नाली में कोई बोलता है।’ (आ) बहुत से ज्ञात पुरुषों में किसी अनिश्चित पुरुष के लिए; जैसेμ‘है रे! कोई यहाँ?’ (शकु.)। रघुवंशिन महँ जहँ कोउ होई। तेहि समाज अस कहहि न कोईड्ड (राम.) (इ) निषेधवाचक वाक्य में ‘कोई’ का अर्थ ‘सब’ होता है, जैसेμ‘बड़ा पद मिलने से कोई बड़ा नहीं होता’ (सत्य.)। ‘तू किसी को मत सता।’ (ई) ‘कोई’ के साथ ‘सब’ और ‘हर’ (विशेषण) आते हैं। ‘सब कोउ’ का अर्थ ‘सब लोग’ और ‘हर कोई’ का अर्थ हर आदमी होता है। उदाहरणμ ‘सब कोउ कहत राम सुठि साधू’ (राम.)। ‘यह काम हर कोई नहीं कर सकता।’ (उ) अधिक अनिश्चय में ‘कोई’ के साथ ‘एक’ जोड़ देते हैं; जैसेμ ‘कोई एक’ यह बात कहता था।’ (ऊ) किसी ज्ञात पुरुष को छोड़ दूसरे अज्ञात पुरुष का बोध कराने के लिए ‘कोई’ के साथ ‘और’ या ‘दूसरा’ लगा देते हैं, जैसेμयह भेद कोई और न जाने।’ ‘कोई दूसरा होता तो मैं उसे न छोड़ता।’ (ओ) आदर और बहुत्व के लिए भी ‘कोई’ आता है। पिछले अर्थ में बहुधा ‘कोई’ की द्विरुक्ति होती है; जैसेμ‘मेरे घर कोई आए हैं।’ कोई-कोई पोप के अनुयायियों ही को नहीं देख सकते।’ (स्वा.)। ‘किसी-किसी की राय में विदेशी शब्दों का उपयोग मूर्खता है’ (सर.)। 86 ध् हिंदी व्याकरण (ए) अवधारण के लिए ‘कोई-कोई’ के बीच में ‘न’ लगा दिया जाता है; जैसेμयह काम कोई न कोई अवश्य करेगा। (ऐ) ‘कोई-कोई’ इन दुहरे शब्दों में विचित्राता सूचित होती है; जैसेμ ‘कोई कहती थी यह उचक्का है, कोई कहती थी एक पक्का है’ (गुटका.)। ‘कोई कुछ कहता है, कोई कुछ।’ इसी अर्थ में ‘इक इक’ आता है, जैसेμ ‘इक प्रविशहिं इक निर्गमहिं भीर भूप दरबार।’(राम.) (ओ) संख्यावाचक विशेषण के पहले ‘कोई’ परिमाणवाचक क्रियाविशेषण के समान आता है और उसका अर्थ ‘लगभग’ होता है; जैसेμ‘इसमें कोई 400 पृष्ठ हैं’ (सर.)। 

133. कुछμ (एकवचन)। दूसरे सर्वनामों के समान ‘कुछ’ का रूपांतर नहीं होता। इसका प्रयोग बहुधा विशेषण के समान होता है। जब इसका प्रयोग संज्ञा के बदले में होता है, तब यह नीचे लिखे अर्थों में आता हैμ (अ) किसी अज्ञात पदार्थ वा धर्म के लिए; जैसेμमेरे मन में आती है कि इससे कुछ पूछूँ’ (शकु.)। ‘घी में कुछ मिला है।’ (आ) छोटे जंतु या पदार्थ के लिए; जैसेμ‘पानी में कुछ है।’ (इ) कभी-कभी ‘कुछ’ परिमाणवाचक क्रियाविशेषण के समान आता है। इस अर्थ में कभी-कभी उसकी द्विरुक्ति भी होती है। उदाहरणμतेरे शरीर का ताप कुछ घटा कि नहीं?’ (शकु.)। ‘उसने उसके कुछ खिलाफ कार्रवाई की है’ (स्वा.)। ‘लड़की कुछ छोटी है।’ दोनों की आकृति कुछ-कुछ मिलती है। (ई) आश्चर्य, आनंद वा तिरस्कार के अर्थ में भी ‘कुछ’ क्रियाविशेषण होता है; जैसेμ‘हिंदी कुछ संस्कृत तो है नहीं’ (सर.)। ‘हम लोग कुछ लड़ते नहीं हैं।’ ‘मेरा हाल कुछ न पूछो।’ (उ) अवधारण के लिए ‘कुछ न कुछ’ आता है; जैसेμ ‘आर्य जाति ने दिशाओं के नाम कुछ न कुछ रख लिया होगा’ (सर.)। (ऊ) किसी ज्ञात पदार्थ वा धर्म को छोड़कर दूसरे अज्ञात पदार्थ वा धर्म का बोध कराने के लिए ‘कुछ’ के साथ ‘और’ आता है; जैसेμतेरे मन ‘कुछ’ और ही है’ (शकु.)। (ऋ) भिन्नता या विपरीतता सूचित करने के लिए ‘कुछ का कुछ’ आता है, जैसेμ‘आपने कुछ का कुछ समझ लिया।’ ‘जिनसे ये कुछ के कुछ हो गए’ (इति.)। ()िं ‘कुछ’ के साथ ‘सब’ और ‘बहुत’ आते हैं। ‘सब कुछ’ का अर्थ ‘सब पदार्थ वा धर्म’ है, और ‘बहुत कुछ’ का अर्थ ‘बहुत से पदार्थ वा धर्म’ अथवा ‘अधिकता’ से है। उदाहरणμ‘हम समझते सब कुछ हैं’ (सत्य.)। ‘लड़का बहुत कुछ दौड़ता है। ‘यों भी बहुत कुछ ही रहेगा’ (सत्य.)। हिंदी व्याकरण ध् 87 (ए) ‘कुछ कुछ’ ये दुहरे शब्द विचित्राता सूचित करते हैं; जैसेμ‘ एक कुछ कहता और दूसरा कुछ’ (इति.)। ‘कुछ तेरा गुरु जानता है, कुछ मेरे से लोग जानते हैं।’ (मुद्रा)। (ऐ) ‘कुछ-कुछ’ कभी-कभी समुच्चयबोधक के समान आकर दो वाक्यों को जोड़ते हैं, जैसेμ‘छापे की भूलें कुछ प्रेस की असावधानी से और कुछ लेखकों के आलस से होती हैं’ (सर.)। ‘कुछ तुम समझे, कुछ हम समझे’ (कहा.)। ‘कुछ हम खुले, कुछ वह खुले।’ (ओ) ‘कुछ-कुछ’ से कभी-कभी ‘अयोग्यता’ का अर्थ पाया जाता है; जैसेμ‘ कुछ तुमने कमाया, कुछ तुम्हारा भाई कमावेगा।’ 

134. जो (दोनों वचन)। हिंदी में संबंधवाचक सर्वनाम एक ही है; इसलिए न्यायशास्त्रा के अनुसार इसका लक्षण नहीं बताया जा सकता। भाषाभास्कर को छोड़कर प्रायः सभी व्याकरणों में संबंधवाचक सर्वनाम का लक्षण नहीं दिया गया। भाषाभास्कर में जो लक्षण1 है वह भी स्पष्ट नहीं है। लक्षण के अभाव के यहाँ इस सर्वनाम के केवल प्रयोग लिखे जाते हैं। (अ) ‘जो’ के साथ ‘सो’ वा ‘वह’ का नित्य संबंध रहता है। ‘सो’ वा ‘वह’ निश्चयवाचक सर्वनाम है; परंतु संबंधवाचक सर्वनाम के साथ आने पर इसे नित्यसंबंधी सर्वनाम कहते हैं। जिस वाक्य में संबंधवाचक सर्वनाम आता है, उसका संबंध एक दूसरे वाक्य से रहता है जिसमें नित्यसंबंधी सर्वनाम आता है; जैसेμ‘जो बोले सो घी को जाय’ (कहा.)। ‘जो हरिश्चंद्र ने किया वह तो अब कोई भी भारतवासी न करेगा’ (सत्य.)। (आ) संबंधवाचक और नित्यसंबंधी सर्वनाम एक ही संज्ञा के बदले आते हैं। जब इस संज्ञा का प्रयोग होता है, तब यह बहुधा पहले वाक्य में आता है और संबंधवाचक सर्वनाम दूसरे वाक्य में आता है; जैसेμयह शिक्षा उन अध्यापकों के द्वारा प्राप्त नहीं हो सकती, जो अपने ज्ञान की बिक्री करते हैं’ (हिं. ग्रा.)। ‘यह नारी कौन है जिसका रूप वस्त्राों में झलक रहा है’ (शकु.)। (इ) जिस संज्ञा के बदले संबंधवाचक और नित्यसंबंधी सर्वनाम आते हैं, उसके अर्थ की स्पष्टता के लिए बहुधा दोनों सर्वनामों में से किसी एक का प्रयोग विशेषणों के समान करके उसके पश्चात् पूर्वोक्त संज्ञा को लाते हैं; जैसेμ‘क्या आप फिर उस परदे को डाला चाहते हैं, जो सत्य ने मेरे सामने से हटाया?’ (गुटका.)। ‘श्रीकृष्ण ने उन लकीरों को गिना जो उसने खैंची थीं’ (प्रेम.)। ‘जिस हरिश्चंद्र ने उदय से अस्त तक की पृथ्वी के लिए धर्म न छोड़ा उसका धर्म आध गज कपड़े के वास्ते मत छुड़ाओ’ (सत्य.)। 1. ‘संबंधवाचक सर्वनाम उसे कहते हैं, जो कही हुई संज्ञा से कुछ वर्णन मिलाता है। 88 ध् हिंदी व्याकरण (ई) नित्यसंबंधी ‘सो’ की अपेक्षा ‘वह’ का प्रचार अधिक है। कभी-कभी उसके बदले ‘यह’, ‘ऐसा’, ‘सब’ और ‘कौन’ आते हैं; जैसेμ‘ जिस शकुंतला ने तुम्हारे बिना सींचे कभी जल भी नहीं पिया, उसको तुम पति के घर जाने की आज्ञा दो’ (शकु.) ‘संसार में ऐसी कोई चीज न थी, जो उस राजा के लिए अलभ्य होती’ (रघु.)। ‘वह कौन सा उपाय है, जिससे यह पापी मनुष्य ईश्वर के कोप से छुटकारा पावे?’ (गुटका.)। ‘सब लोग जो यह तमाशा देख रहे थे, अचरज करने लगे।’ (उ) कभी-कभी संबंधवाचक सर्वनाम अकेला पहले वाक्य में आता है और उसकी संज्ञा दूसरे वाक्य में बहुधा ‘ऐसा’ वा ‘वह’ के साथ आती है, जैसेμ‘ जिसने कभी कोई पापकर्म नहीं किया था ऐसे राजा रघु ने यह उत्तर दिया’ (रघु.)। ‘प्रभु जो दीन्ह सो वर मैं पावा।’ (राम.) (ऊ) ‘जो’ कभी-कभी एक वाक्य के बदले (बहुधा उसके पीछे) समुच्चयबोधक के समान आता है; जैसेμ‘ आ वेग वेग चली आ, जिससे सब एक संग क्षेम-कुशल से कुटी में पहुँचे’ (शकु.)। ‘लोहे के बदले उसमें सोना काम में आवे, जिससे भगवान् भी उसे देखकर प्रसन्न हो जावें’ (गुटका.)। (ऋ) आदर और बहुत्व के लिए भी ‘जो’ आता है; जैसेμ‘यह चारों कवित्त श्री बाबू गोपालचंद्र के बनाए हैं, जो कविता में अपना नाम गिरधरदास रखते थे।’ (सत्य.) ‘यहाँ तो वे ही बड़े हैं जो दूसरे को दोष लगाना पढ़े हैं’ (शकु.)। (ए) ‘जो के साथ कभी-कभी आगे या पीछे, फारसी का संबंधवाचक सर्वनाम ‘कि’ आता है (पर अब उसका प्रचार घट रहा है); जैसेμ‘किसी समय राजा हरिश्चंद्र बड़ा दानी हो गया है कि जिसकी कीर्ति संसार में अब तक छाय रही है’ (प्रेम.)। ‘कौन-कौन से समय के फेरफार इन्हें झेलने पड़े कि जिनसे वे कुछ के कुछ हो गए’ (इति.)। ‘अशोक ने उन दुखियों और घायलों को पूर्ण सहायता पहुँचाई, जो कि युद्ध में घायल हुए थे।’ ‘कलिंग उसी प्रकार नष्ट हो गया, जिस प्रकार कि एक पतिंगा जल जाता है’ (निबंध)। (ऐ) समूह के अर्थ में संबंधवाचक और नित्यसंबंधी सर्वनाम से बहुधा दोनों की अथवा एक की द्विरुक्ति होती है; जैसेμ‘त्यों हरिचंद जू जो जो कह्यो सो कियो चुप ह्नै करि कोटि उपाई’ (सुंदरी.)। ‘कन्या के विवाह में हमें जो जो वस्तु चाहिए सो सो सब इकट्ठी करो।’ (ओ) कभी-कभी संबंधवाचक वा नित्यसंबंधी सर्वनाम का लोप होता है; जैसेμ‘हुआ सो हुआ’ (शकु.)। ‘जो पानी पीता है आपको असीस देता है’ (गुटका.)। कभी-कभी दूसरे वाक्य ही का लोप होता है; जैसेμ ‘जो आज्ञा।’ जो हो।’ (सू.μयह प्रयोग कभी-कभी संयोजक क्रियाविशेषणों के साथ भी होता है। दे. अंकμ213।) (औ) ‘जो कभी-कभी समुच्चयबोधक के समान आता है और उसका अर्थ ‘यदि’ वा ‘कि’ होता है; जैसेμ‘क्या हुआ जो अब की लड़ाई में हारे’ (प्रेम.)। ‘हर हिंदी व्याकरण ध् 89 किसी की सामर्थ नहीं जो उसका सामना करे।’ (तथा) ‘जो सच पूछो तो इतनी भी बहुत हुई’ (गुटका.)। (क) ‘जो के साथ अनिश्यचवाचक सर्वनाम भी जोड़े जाते हैं। ‘कोई’ और ‘कुछ’ के अर्थों में जो अंतर है, वही ‘जो कोई’ और ‘जो कुछ’ के अर्थों में भी है; जैसेμ ‘जो कोई नल को घर में घुसने देगा, जान से हाथ धोएगा’ (गुटका.)। ‘महाराज, जो कुछ कहो बहुत समझ-बूझकर कहियो।’ (शकु.)। 

135. प्रश्न करने के लिए जिन सर्वनामों का उपयोग होता है; उन्हें प्रश्नवाचक सर्वनाम कहते हैं। ये दो हैंμकौन और क्या। 

136. ‘कौन’ और ‘क्या’ के प्रयोगों में साधारण अंतर वही है, जो ‘कोई’ और ‘कुछ’ के प्रयोगों में है (दे. अंकμ132-133)। ‘कौन’ प्राणियों के लिए और विशेषकर मनुष्यों के लिए और ‘क्या’ क्षुद्र प्राणी, पदार्थ वा धर्म के लिए आता है; जैसेμ‘हे महाराज, आप कौन हैं?’ (गुटका.) ‘यह आशीर्वाद किसने दिया था?’ (शकु.)। ‘तुम क्या कर सकते हो?’ ‘क्या समझते हो?’ (सत्य.)। ‘क्या है?’ ‘क्या हुआ?’ 

137. ‘कौन’ का प्रयोग नीचे लिखे अर्थों में होता हैμ (अ) निर्धारण के अर्थ में ‘कौन’ प्राणी, पदार्थ और धर्म तीनों के लिए आता है; जैसेμ ‘ह.μतो हम एक नियम पर बिकेंगे।’ ‘ध.μवह कौन?’ (सत्य.)। ‘इसमें पाप कौन है पुण्य कौन है’ (गुटका.)। ‘यह कौन है, जो मेरे अंचल को नहीं छोड़ता?’ (शकु.)। इसी अर्थ में कौन के साथ बहुधा ‘सा’ प्रत्यय लगाया जाता है। जैसेμ‘मेरे ध्यान में नहीं आता कि महारानी शकुंतला कौन सी है’ (शकु.)। ‘तुम्हारा घर कौन सा है?’ (आ) तिरस्कार के लिए, जैसेμ‘रोकनेवाली तुम कौन हो’ (शकु.)। ‘ कौन जाने!’ ‘स्वर्ग! कौन कहे आपने अपने सत्यबल से ब्रह्म पद पाया।’ (इ) आश्चर्य अथवा दुख में; जैसेμ‘इनमें क्रोध की बात कौन सी है।’ ‘अरे! हमारी बात का यह उत्तर कौन देता है?’ (सत्य.)। ‘अरे! आज मुझे किसने लूट लिया!’ (तथा) (ई) ‘कौन’ कभी-कभी ‘कब’ के अर्थ में क्रियाविशेषण होता है, जैसेμआपको सत्संग कौन दुर्लभ है’ (सत्य.)। (उ) वस्तुओं की भिन्नता, असंख्यता और तत्संबंधी आश्चर्य दिखाने के लिए ‘कौन’ की द्विरुक्ति होती है; जैसेμ‘सभा में कौन-कौन आए थे?’ ‘मैं किस किसको बुलाऊँ!’ ‘तूने पुण्यकर्म कौन-कौन से किए हैं?’ (गुटका.)। 

138. ‘क्या नीचे लिखे अर्थों में आता हैμ (अ) किसी वस्तु का लक्षण जानने के लिए; जैसेμ‘मनुष्य क्या है?’ ‘आत्मा क्या है?’ ‘धर्म क्या है’। 90 ध् हिंदी व्याकरण (सू.μइसी अर्थ में कौन का रूप ‘किसे’ या ‘किसको’ ‘कहना’ क्रिया के साथ आता है; जैसेμ‘नदी किसे कहते हैं?’) (आ) किसी वस्तु के लिए तिरस्कार वा अनादर सूचित करने में, जैसेμक्या हुआ जो अबकी लड़ाई में हारे?’ (प्रेम.)। ‘भला हम दास लेके क्या करेंगे?’ (सत्य.)। ‘धन तो क्या इस काम में, तन भी लगाना चाहिए!’ ‘क्या जाने।’ (इ) आश्चर्य में; जैसेμ‘ऊषा क्या देखती है कि चहुँ ओर बिजली चमकने लगी!’ (पे्रम.)। ‘क्या हुआ’। वाह! क्या कहना है!’ (सू.μइसी अर्थ में ‘क्या’ बहुधा क्रियाविशेषण के समान आता है; जैसेμघुड़दौड़ क्या है, उड़ आए हैं’ (शकु.)। ‘क्या अच्छी बात है!’ ‘वह आदमी क्या राक्षस’ है? (ई) धमकी में; जैसेμ‘तुम यह क्या करते हो!’ ‘तुम यहाँ क्या बैठे हो?’ (उ) किसी वस्तु की दशा बताने में; जैसेμ‘हम कौन थे क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी’ (भारत.)। (ऊ) कभी-कभी ‘क्या’ का प्रयोग विस्मयादिबोधक के समान होता हैμ (1) प्रश्न करने के लिए, जैसेμ‘क्या गाड़ी चली गई?’ (2) आश्चर्य सूचित करने के लिए, जैसेμ‘क्या तुमको चिद्द दिखाई नहीं देते!’ (शकु.)। (ऋ) आवश्यकता के अर्थ में भी ‘क्या’ क्रियाविशेषण होता है, जैसेμहिंसक जीव मुझे क्या मारेंगे?’ (रघु.)। ‘उसके मारने से परलोक क्या बिगड़ेगा?’ (गुटका.)। ()िं निश्चय कराने में भी ‘क्या’ क्रियाविशेषण के समान आता है, जैसेμ‘सरोजिनीμमाँ! मैं यह क्या बैठी हूँ?’ (सरो.)। ‘सिपाही वहाँ क्या जा रहा है?’ इन वाक्यों में क्या का अर्थ ‘अवश्य’ वा ‘निस्सन्देह है। (ए) बहुत्व वा आश्चर्य में ‘क्या’ की द्विरुक्ति होती है, जैसेμ‘विष देनेवाले लोगों ने क्या-क्या किया?’ (मुद्रा.)। ‘मैं क्या-क्या कहूँ?’ (ऐ) क्या क्या, इन दुहरे शब्दों का प्रयोग समुच्चयबोधक के समान होता है, जैसेμ‘ क्या मनुष्य और क्या जीव-जंतु, मैंने अपना सारा जन्म इन्हीं का भला करने में गँवाया’ (गुटका.)। (दे. अंकμ244) 

139. दशांतर सूचित करने के लिए, ‘क्या से क्या’ वाक्यांश आता है; जैसेμ‘हम आज क्या से क्या हुए!’ (भारत.) 

140. पुरुषवाचक, निजवाचक और निश्चयवाचक सर्वनामों में अवधारण के लिए, ‘ही’, हीं वा ‘ई’ प्रत्यय जोड़ते हैं; जैसेμमैं = मैंही, तू = तूही, हम =हमीं, तुम = तुम्हीं, आप = आपही, वह = वही, सो = सोई, यह = यही, वे = वेही, ये = येही। (क) अनिश्चयवाचक सर्वनामों में ‘भी’ अव्यय जोड़ा जाता है; जैसेμ‘कोई भी’, ‘कुछ भी।’ (टि.μहिंदी के भिन्न-भिन्न व्याकरणों में सर्वनामों की संख्या और वर्गीकरण हिंदी व्याकरण ध् 91 के संबंध में बहुत कुछ मतभेद है। हिंदी के जो व्याकरण (एथरिंगटन, कैलाग, ग्रीब्ज आदि) अँगरेज विद्वानों ने लिखे हैं और जिनकी सहायता प्रायः सभी हिंदी व्याकरणों में पाई जाती है, उनका उल्लेख करने की यहाँ आवश्यकता नहीं है क्योंकि किसी भी भाषा के संबंध में केवल वही लोग प्रमाण माने जा सकते हैं जिनकी वह भाषा है, चाहे उन्होंने अपनी भाषा का व्याकरण विदेशियों की सहायता से सीखा हो। इसके सिवा यह व्याकरण हिंदी में लिखा गया है; इसलिए हमें केवल हिंदी में लिखे हुए व्याकरणों पर विचार करना चाहिए, यद्यपि इनमें भी कुछ लोग ऐसे हैं, जिनके लेखकों की मातृभाषा हिंदी नहीं है। पहले हम इन व्याकरणों में दी हुई सर्वनामों की संख्या का विचार करेंगे।) सर्वनामों की संख्या ‘भाषाप्रभाकर’ में आठ, ‘हिंदी व्याकरण’ में सात और ‘हिंदी बालबोध व्याकरण’ में कोई सत्राह है। ये तीनों व्याकरण औरों से पीछे के हैं, इसलिए हमें समालोचना के निमित्त इन्हीं की बातों पर विचार करना है। अधिक पुस्तकों के गुण-दोष दिखाने के लिए इस पुस्तक में स्थान की संकीर्णता है। (1) भाषाप्रभाकरμमैं, तू, यह, वह, जो, सो, कोई, कौन। (2) हिंदी व्याकरणμमैं, तू, आप, यह, वह, जो, कौन। (3) हिंदी बालबोध व्याकरणμमैं, तू, वह, जो, सो, कौन, क्या, यह, कोई, सब, कुछ, एक, दूसरा, दोनों, एक दूसरा, कई एक आप। ‘भाषाप्रभाकर’ में ‘क्या’, ‘कुछ’ और ‘आप’ अलग-अलग सर्वनाम नहीं माने गए हैं, यद्यपि सर्वनामों के वर्णन में इनका अर्थ दिया गया है। इनमें भी आपका केवल ‘आदरसूचक’ प्रयोग बताया गया है। फिर आगे अव्ययों में ‘क्या’ और ‘कुछ का उल्लेख किया गया है, परंतु वहाँ भी इनके संबंध में कोई बात स्पष्टता से नहीं लिखी गई। ऐसी अवस्था में समालोचना करना वृथा है। ‘हिंदी व्याकरण’ में ‘सो’, ‘कोई’, ‘क्या’ और ‘कुछ’ सर्वनाम नहीं माने गए हैं। पर लेखक ने पुस्तक में सर्वनाम का जो लक्षण1 दिया है उसमें इन शब्दों का अंतर्भाव होता है, और उन्होंने स्वयं एक स्थान में (पृ. 81) ‘कोई को सर्वनाम के समान लिखा है; फिर न जाने क्यों यह शब्द भी सर्वनामों की सूची में नहीं रखा गया? ‘क्या’ और ‘कुछ’ के विषय में अव्यय होने की संभावना है, पर ‘सो’ और ‘कोई’ के विषय में किसी को भी संदेह नहीं हो सकता, क्योंकि इनके रूप और प्रयोग ‘वह’ ‘जो’ ‘कौन’ के नमूने पर होते हैं। जान पड़ता है कि मराठी में ‘कोण’ शब्द प्रश्नवाचक और अनिश्चयवाचक दोनों होने के कारण लेखक ने ‘कोई’ को ‘कौन’ के अंतर्गत माना है, परंतु हिंदी में ‘कौन’ और ‘कोई’ के रूप और प्रयोग अलग-अलग हैं। लेखक ने कोई 150 अव्ययों की सूची में ‘कुछ’, ‘क्या’ और ‘सो’ लिखे हैं, पर 1. ‘सर्वनाम उसे कहते हैं जो नाम के बदले में आया हो।’ 92 ध् हिंदी व्याकरण इन बहुत से शब्दों में केवल दो या तीन के प्रयोग बताए गए हैं, और उनमें भी ‘कुछ’, ‘क्या’ और ‘सो’ का नाम तक नहीं है। बिना किसी वर्गीकरण के (चाहे वह पूर्णतया न्यायसंगत न हो) केवल वर्णमाला के क्रम से 150 अव्ययों की सूची दे देने से उनका स्मरण कैसे रह सकता है और उनके प्रयोग का क्या ज्ञान हो सकता है? यदि किसी शब्द को केवल ‘अव्यय’ कहने से काम चल सकता है, तो फिर विकारी शब्दों के जो भेद संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया जो लेखक ने माने हैं, उनकी भी क्या आवश्यकता है? ‘हिंदी बालबोध व्याकरण’ में सर्वनामों की संख्या सबसे अधिक है। लेखक ने ‘कोई’ और ‘कुछ’ के साथ ‘सब’ को अनिश्चयवाचक सर्वनाम माना है और ‘एक’, ‘दूसरा’, ‘दोनों’, ‘एक दूसरा’, ‘कई एक’ आदि को विषयवाचक सर्वनामों में लिखा है। ये सब शब्द यथार्थ में विशेषण हैं, क्योंकि इनके रूप और प्रयोग विशेषणों के समान होते हैं। ‘एक लड़का’, ‘दस लड़के’, और ‘सब लड़के’, इन वाक्यांशों में संज्ञा के अर्थ के संबंध में ‘एक’, ‘दस’ और ‘सब’ का प्रयोग व्याकरण में एक ही सा हैμअर्थात् तीनों शब्द ‘लड़का’ संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित करते हैं। इसलिए यदि ‘दस’ विशेषण है, तो ‘सब’ भी विशेषण है। हाँ, कभी-कभी विशेष्य के लोप होने पर ऊपर लिखे शब्दों का प्रयोग संज्ञाओं के समान होता है; पर प्रयोग की भिन्नता और भी कई शब्द भेदों में पाई जाती है। हमने इन सब शब्दों को विशेषण मानकर एक अलग ही वर्ग में रखा है। जिन शब्दों को बालबोध व्याकरण के कर्ता ने निश्चयवाचक सर्वनाम माना है, वे सर्वनाम माने जाने पर भी निश्चयात्मक नहीं हैं। उदाहरण के लिए ‘एक’ और ‘दूसरा’ शब्द लीजिए। इनका प्रयोग ‘कोई’ के समान होता है, जो अनिश्चयवाचक है, तब वह अवश्य निश्चयवाचक विशेषण (जो सर्वनाम) होता है, परंतु समालोचित पुस्तक में इन सर्वनामों के प्रयोगों के उदाहरण नहीं हैं इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि लेखक ने किस अर्थ में इन्हें निश्चयवाचक माना है। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि ऊपर कही हुई तीनों पुस्तकों में जो कई शब्द सर्वनामों की सूची में दिए गए हैं, अथवा छोड़ दिए गए हैं, उनके लिए कोई प्रबल कारण नहीं है। अब सर्वनामों के वर्गीकरण का कुछ विचार करना चाहिए। ‘भाषाप्रभाकर’ और ‘हिंदी बालबोध व्याकरण’ में सर्वनामों के पाँच भेद माने गए हैं, पर दोनों में निजवाचक सर्वनाम न अलग माना गया है और न किसी भेद के अंतर्गत लिखा गया है। यद्यपि सर्वनामों के विवेचन में इसका कुछ उल्लेख हुआ है, तथापि वहाँ भी ‘आदरसूचक’ के अन्य पुरुष का प्रयोग नहीं बताया गया। हम इस अध्याय में बता चुके हैं कि हिंदी में ‘आप’ एक अलग सर्वनाम है, जो मूल में निजवाचक है और उसका एक प्रयोग आदर के लिए होता है। दोनों पुस्तकों में ‘सो’ संबंधवाचक लिखा गया है; पर यह सर्वनाम ‘वह’ का पर्यायवाची होने के कारण यथार्थ में निश्चयवाचक है और कभी-कभी यह संबंधवाचक ‘जो’ के बिना भी आता है। हिंदी व्याकरण ध् 93 ‘हिंदी व्याकरण’ में संस्कृत की देखादेखी सर्वनामों के भेद ही नहीं किए गए हैं। पर एक-दो स्थानों में (दे. पृ. 90-91) ‘निजवाचक आप’ शब्द का उपयोग हुआ है, जिससे सर्वनामों के किसी न किसी वर्गीकरण की आवश्यकता जान पड़ती है। न जाने लेखक ने इनका वर्गीकरण क्यों नहीं आवश्यक समझा? 

141. ‘यह’, ‘वह’, ‘सो’, ‘जो’, और ‘कौन’ के रूप ‘इस’ ‘उस’, ‘तिस’, ‘जिस’, और ‘किस’ के अंत्य ‘स’ के स्थान में ‘तना’ आदेश करने से परिणामवाचक विशेषण और ‘इ’ को ‘ऐ’ तथा ‘उ’ को ‘वै’ करके ‘सा’ आदेश करने से गुणवाचक विशेषण बनते हैं। दूसरे सार्वनामिक विशेषणों के समान ये शब्द प्रयोग में कभी सर्वनाम और कभी विशेषण होते हैं। कभी-कभी वे क्रियाविशेषण भी होते हैं। इसके प्रयोग आगे विशेषण के अध्याय में लिखे जायँगे। नीचे के कोठे में इनकी व्युत्पत्ति समझाई जाती हैμ सर्वनाम रूप परिमाणवाचक गुणवाचक विशेषण विशेषण यह इस इतना ऐसा वह उस उतना वैसा सो तिस तितना तैसा जो जिस जितना जैसा कौन किस कितना कैसा सर्वनामों की व्युत्पत्ति 

142. हिंदी के सब सर्वनाम प्राकृत के द्वारा संस्कृत से निकले हैं; जैसेμ संस्कृत प्राकृत हिंदी अहम् अम्ह मैं, हम त्वम तुम्ह तू, तुम एषः एअ यह, ये सः सो सो, वह, वे यः जो जो कः को कौन किम् किम् क्या कोऽपि कोवि कोई आत्मन् अप्प आप किंचित् किंचि कुछ