AShTachhAp kE kavi_अष्टछाप के कवि

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अष्टछाप, महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी एवं उनके पुत्र श्री विट्ठलनाथ जी द्वारा संस्थापित ८ भक्तिकालीन कवियों का एक समूह था, जिन्होंने अपने विभिन्न पद एवं कीर्तनों के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का गुणगान किया। अष्टछाप की स्थापना १५६५ ई० में हुई थी।
अष्टछाप कवियों के अंतर्गत पुष्टिमार्गीय आचार्य वल्लभ के काव्य कीर्तनकार चार प्रमुख शिष्य तथा उनके पुत्र विट्ठलनाथ के भी चार शिष्य थे। आठों ब्रजभूमि के निवासी थे और श्रीनाथजी के समक्ष गान रचकर गाया करते थे। उनके गीतों के संग्रह को "अष्टछाप" कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ आठ मुद्रायें है। उन्होने ब्रजभाषा में श्रीकृष्ण विषयक भक्तिरसपूर्ण कविताएँ रचीं। उनके बाद सभी कृष्ण भक्त कवि ब्रजभाषा में ही कविता रचने लगे। अष्टछाप के कवि जो हुये हैं, वे इस प्रकार से हैं:-

कुंभनदास     (१४६८ ई. - १५८३ ई.)
सूरदास         (१४७८ ई. - १५८० ई.)
कृष्णदास      (१४९५ ई. - १५७५ ई.)
परमानन्ददास (१४९१ ई. - १५८३ ई.)
गोविंदस्वामी  (१५०५ ई. - १५८५ ई.)
छीतस्वामी     (१४८१ ई. - १५८५ ई.)
नंददास         (१५३३ ई. - १५८६ ई.)
चतुर्भुजदास   (१५३० ई. - १५८५ ई. )

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1) कुम्भनदास  (१४६८-१५८३)

कुम्भनदास(१४६८-१५८३) अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि थे। ये परमानंददास जी के समकालीन थे। कुम्भनदास का चरित "चौरासी वैष्णवन की वार्ता" के अनुसार संकलित किया जाता है। कुम्भनदास ब्रज में गोवर्धन पर्वत से कुछ दूर "जमुनावतौ" नामक गाँव में रहा करते थे। उनके घर में खेती-बाड़ी होती थी। अपने गाँव से वे पारसोली चन्द्रसरोवर होकर श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तन करने जाते थे। उनका जन्म गौरवा क्षत्रिय कुल में हुआ था। कुम्भनदास के सात पुत्र थे, जिनमें चतुर्भजदास को छोड़कर अन्य सभी कृषि कर्म में लगे रहते थे। उन्होंने १४९२ ई० में महाप्रभु वल्लभाचार्य से दीक्षा ली थी।

वे पूरी तरह से विरक्त और धन, मान, मर्यादा की इच्छा से कोसों दूर थे। एक बार अकबर बादशाह के बुलाने पर इन्हें फतेहपुर सीकरी जाना पड़ा जहाँ इनका बड़ा सम्मान हुआ। पर इसका इन्हें बराबर खेद ही रहा, जैसा कि इनके इस पद से व्यंजित होता है-

संतन को कहा सीकरी सों काम ?
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम।।
जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम।।
कुभंनदास लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम।।
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2) सूरदास (१४७८ ई. - १५८० ई.)

सूरदास का नाम कृष्ण भक्ति की अजस्र धारा को प्रवाहित करने वाले भक्त कवियों में सर्वोपरि है। हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं। सूरदास हिन्दी साहित्य में भक्ति काल के सगुण भक्ति शाखा के कृष्ण-भक्ति उपशाखा के महान कवि हैं।
सूरदास का जन्म 1478 ईस्वी में रुनकता नामक गांव में हुआ। यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद में ये आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे। सूरदास के पिता रामदास गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषय में  मतभेद है। प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में १५८० ईस्वी में हुई।
सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं:
(१) सूरसागर - जो सूरदास की प्रसिद्ध रचना है। जिसमें सवा लाख पद संग्रहित थे। किंतु अब सात-आठ हजार पद ही मिलते हैं।
(२) सूरसारावली
(३) साहित्य-लहरी - जिसमें उनके कूट पद संकलित हैं।
(४) नल-दमयन्ती
(५) ब्याहलो
उपरोक्त में अन्तिम दो अप्राप्य हैं।

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3) कृष्णदास (१४९५ ई. - १५७५ ई.)

कृष्णदास हिन्दी के भक्तिकाल के अष्टछाप के कवि थे।
उनका जन्म १४९५ ई. के आसपास गुजरात प्रदेश में चिलोतरा ग्राम के एक कुनबी पाटिल परिवार में हुआ था। बचपन से ही प्रकृत्ति बड़ी सात्विक थी। जब वे १२-१३ वर्ष के थे तो उन्होंने अपने पिता को चोरी करते देखा और उन्हें गिरफ्तार करा दिया फलत: वे पाटिल पद से हटा दिए गए। इस कारण पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया। वे भ्रमण करते हुए ब्रज पहुँचे। उन्हीं दिनों नवीन मंदिर में श्रीनाथ जी की मूर्ति की प्रतिष्ठा करने की तैयारी हो रही थी। श्रीनाथ जी के दर्शन से वे बहुत प्रभावित हुए और वल्लभाचार्य से उनके संप्रदाय की दीक्षा ली।
उनकी असाधारण बुद्धिमत्ता, व्यवहार कुशलता और संघटन योयता से प्रभावित होकर वल्लभाचार्य ने उन्हें भेटिया (भेंट संग्रह करनेवाला) के पद पर नियुक्त किया और फिर शीघ्र उन्हें श्रीनाथ जी के मंदिर का अधिकारी बना दिया। उन्होंने अपने इस उत्तरदायित्व का बड़ी योग्यता से निर्वाह किया। कृष्णदास को सांप्रदायिक सिद्धांतों का अच्छा ज्ञान था जिसके कारण वे अपने संप्रदाय के अग्रगण्य लोगों में माने जाते थे। उन्होंने समय-समय पर कृष्ण लीला प्रसंगों पर पद रचना की जिनकी संख्या लगभग २५० है जो राग कल्पद्रुम, राग रत्नाकर तथा संप्रदाय के कीर्तन संग्रहों में उपलब्ध हैं। १५७५ और १५८१ ई. के बची किसी समय उनका देहावासन हुआ।

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4) परमानन्ददास (१४९१ ई. - १५८३ ई.)

परमानन्ददास (जन्म संवत् १६०६) वल्लभ संप्रदाय (पुष्टिमार्ग) के आठ कवियों (अष्टछाप कवि) में एक कवि जिन्होने भगवान श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का अपने पदों में वर्णन किया। इनका जन्म काल संवत १६०६ के आसपास है। अष्टछाप के कवियों में प्रमुख स्थान रखने वाले परमानन्ददास का जन्म कन्नौज (उत्तर प्रदेश) में एक निर्धन कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके ८३५ पद "परमानन्दसागर" में हैं।
अष्टछाप में महाकवि सूरदास के बाद आपका ही स्थान आता है। इनके दो ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। ‘ध्रुव चरित्र’ और ‘दानलीला’। इनके अतिरिक्त ‘परमानन्द सागर’ में इनके ८३५ पद संग्रहीत हैं। इनके पद बड़े ही मधुर, सरस और गेय हैं।
यह मांगो गोपीजन वल्लभ।
मानुस जन्म और हरि सेवा, ब्रज बसिबो दीजे मोही सुल्लभ ॥१॥
श्री वल्लभ कुल को हों चेरो, वल्लभ जन को दास कहाऊं।
श्री जमुना जल नित प्रति न्हाऊं, मन वच कर्म कृष्ण रस गुन गाऊं ॥२॥
श्री भागवत श्रवन सुनो नित, इन तजि हित कहूं अनत ना लाऊं।
‘परमानंद दास’ यह मांगत, नित निरखों कबहूं न अघाऊं ॥३॥

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5) गोविंदस्वामी (१५०५ ई. - १५८५ ई.)

गोविन्दस्वामी वल्लभ संप्रदाय (पुष्टिमार्ग) के आठ कवियों (अष्टछाप कवि) में एक थे। इनका जन्म राजस्थान के भरतपुर राज्य के अन्तर्गत आँतरी गाँव में १५०५ ई० में हुआ था। ये सनाढ्य ब्राह्मण थे, ये विरक्त हो गये थे और महावन में आकर रहने लगे थे।[1] १५८५ ई० में इन्होंने गोस्वामी विट्ठलनाथ से विधिवत पुष्टमार्ग की दीक्षा ग्रहण की और अष्टछाप में सम्मिलित हो गए। इन्होंने भगवान श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का अपने पदों में वर्णन किया
गोविंद दास जी का एक पद
श्री वल्लभ चरण लग्यो चित मेरो।
इन बिन और कछु नही भावे, इन चरनन को चेरो ॥१॥
इन छोड और जो ध्यावे सो मूरख घनेरो।
गोविन्द दास यह निश्चय करि सोहि ज्ञान भलेरो ॥२॥

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6) छीतस्वामी (१४८१ ई. - १५८५ ई.)

छीतस्वामी वल्लभ संप्रदाय (पुष्टिमार्ग) के आठ कवियों (अष्टछाप कवि) में एक। जिन्होने भगवान श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का अपने पदों में वर्णन किया। इनका जन्म १५१५ ई० में हुआ था। मथुरा के चतुर्वेदी ब्राह्मण थे। घर में जजमानी और पंडागिरी होती थी। प्रसिद्ध है कि ये बीरबल के पुरोहित थे। पंडा होने के कारण पहले ये बड़े अक्खड़ और उद्दण्ड थे।
छीतस्वामी श्री गोकुलनाथ जी (प्रसिद्ध पुष्टिमार्ग के आचार्य ज. सं. 1608 वि.) कथित दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता के अनुसार अष्टछाप के भक्त कवियों में सुगायक एवं गुरु गोविंद में तनिक भी अंतर न माननेवाले "श्रीमद्वल्लभाचार्य" (सं. 1535 वि.) के द्वितीय पुत्र गो. श्री विट्ठलनाथ जी (ज.सं.- 1535 वि.) के शिष्य थे। जन्म अनुमानत: सं.- 1572 वि. के आसपास "मथुरा" यत्र सन्निहिओ हरि: (श्रीमद्भागवत : 10.1.28) में माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण के एक संपन्न परिवार में हुआ था। उनके माता पिता का नाम बहुत खेज करने के बाद आज तक नहीं जाना जा सका है। "स्वामी" पदवी उनको गो. विट्ठलनाथ जी ने दी, जो आज तक आपके वंशजों के साथ जुड़ती हुई चली आ रही है।
छीतस्वामी कृत कुछ विशेष साहित्य नहीं मिलता। पुष्टि संप्रदाय में नित्य उत्सव विशेष पर गाए जानेवाले उनके हस्तलिखित एवं मुद्रित संग्रहग्रंथ- "नित्यकीर्तन", "वर्षोत्सव" तथा "वसंतधमार" पदविशेष मिलते हैं। कीर्तन रचनाओं में संगीत सौंदर्य, ताल और लय एवं स्वरों का एक रागनिष्ठ मधुर मिश्रण देखा जा सकता है।

भोग श्रृंगार यशोदा मैया, श्री विट्ठलनाथ के हाथ को भावें।
नीके न्हवाय श्रृंगार करत हैं, आछी रुचि सों मोही पाग बंधावें ॥
तातें सदा हों उहां ही रहत हो, तू दधि माखन दूध छिपावें।
छीतस्वामी गिरिधरन श्री विट्ठल, निरख नयन त्रय ताप नसावें ॥

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7) नंददास (१५३३ ई. - १५८६ ई.)

भक्तिकाल में पुष्टिमार्गीय अष्टछाप के कवि नंददास जी का जन्म जनपद- कासगंज के सोरों शूकरक्षेत्र अन्तर्वेदी रामपुर (वर्त्तमान- श्यामपुर) गाँव निवासी भरद्वाज गोत्रीय सनाढ्य ब्राह्मण पं० सच्चिदानंद शुक्ल के पुत्र पं० जीवाराम शुक्ल की पत्नी चंपा के गर्भ से सम्वत्- 1572 विक्रमी में हुआ था। पं० सच्चिदानंद के दो पुत्र थे, पं० आत्माराम शुक्ल और पं० जीवाराम शुक्ल। पं० आत्माराम शुक्ल एवं हुलसी के पुत्र का नाम महाकवि गोस्वामी तुलसीदास था, जिन्होंने श्रीरामचरितमानस महाग्रंथ की रचना की थी। नंददास जी के छोटे भाई का नाम चँदहास था। नंददास जी, तुलसीदास जी के सगे चचेरे भाई थे। नंददास जी के पुत्र का नाम कृष्णदास था। नंददास ने कई रचनाएँ- रसमंजरी, अनेकार्थमंजरी, भागवत्-दशम स्कंध, श्याम सगाई, गोवर्द्धन लीला, सुदामा चरित, विरहमंजरी, रूप मंजरी, रुक्मिणी मंगल, रासपंचाध्यायी, भँवर गीत, सिद्धांत पंचाध्यायी, नंददास पदावली हैं।

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8) चतुर्भुजदास (१५३० ई. - १५८५ ई. )

चतुर्भुजदास वल्ल्भ संप्रदाय (पुष्टिमार्ग) के आठ कवियों (अष्टछाप कवि) में एक। इनका जन्म १५३० ई० में हुआ। ये कुम्भनदास के पुत्र और गोसाईं विट्ठलनाथ जी के शिष्य थे। इनकी भाषा चलती और सुव्यवस्थित है। इनके तीन ग्रंथ मिलते हैं- द्वादशयश, भक्तिप्रताप तथा हितजू को मंगल। इनका निधन १५८५ ई० में हुआ। चतुर्भुजदास ने भगवान श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का अपने पदों में वर्णन किया-
चतुर्भुज दास जी के कुछ पद
मैया मोहि माख्नन मिसरी भावे।
मीठो दधि मिठाई मधुघृत, अपने कर सों क्यों न खवावे ॥१॥
कनक दोहनी दे कर मेरे, गो दोहन क्यों न सिखावे।
ओट्यो दूध धेनु धोरी को, भर के कटोरा क्यों न पिवावे ॥२॥
अजहु ब्याह करत नही मेरो, तोहे नींद क्यों आवे।
‘चतुर्भुज’ प्रभु गिरिधर की बतियाँ, सुन ले उछंग पय पान करावें ॥३॥

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