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vandanA_वंदना

vandanA_वंदना

sOhanlAl dwivEdi::सोहन लाल द्विवेदी














वंदिनी तव वंदना में 
कौन सा मैं गीत गाऊँ? 

स्वर उठे मेरा गगन पर, 
बने गुंजित ध्वनित मन पर, 
कोटि कण्ठों में तुम्हारी 
वेदना कैसे बजाऊँ? 

फिर, न कसकें क्रूर कड़ियाँ, 
बनें शीतल जलन–घड़ियाँ, 
प्राण का चन्दन तुम्हारे 
किस चरण तल पर लगाऊँ? 

धूलि लुiण्ठत हो न अलकें, 
खिलें पा नवज्योति पलकें, 
दुर्दिनों में भाग्य की 
मधु चंद्रिका कैसे खिलाऊँ? 

तुम उठो माँ! पा नवल बल, 
दीप्त हो फिर भाल उज्ज्वल! 
इस निबिड़ नीरव निशा में 
किस उषा की रश्मि लाऊँ? 

वन्दिनी तव वन्दना में 
कौन सा मैं गीत गाऊँ?

AyA vasant_आया वसंत

AyA vasant_आया वसंत

sOhanlAl dwivEdi::सोहन लाल द्विवेदी














आया वसंत आया वसंत
छाई जग में शोभा अनंत।

सरसों खेतों में उठी फूल
बौरें आमों में उठीं झूल
बेलों में फूले नये फूल

पल में पतझड़ का हुआ अंत
आया वसंत आया वसंत।

लेकर सुगंध बह रहा पवन
हरियाली छाई है बन बन,
सुंदर लगता है घर आँगन

है आज मधुर सब दिग दिगंत
आया वसंत आया वसंत।

भौरे गाते हैं नया गान,
कोकिला छेड़ती कुहू तान
हैं सब जीवों के सुखी प्राण,

इस सुख का हो अब नही अंत
घर-घर में छाये नित वसंत।

tumhEn naman_तुम्हें नमन

tumhEn naman_तुम्हें नमन

sOhanlAl dwivEdi::सोहन लाल द्विवेदी














चल पड़े जिधर दो डग, मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ओर ;
गड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
गड़ गए कोटि दृग उसी ओर,

जिसके शिर पर निज हाथ धरा
उसके शिर- रक्षक कोटि हाथ
जिस पर निज मस्तक झुका दिया
झुक गए उसी पर कोटि माथ ;

हे कोटि चरण, हे कोटि बाहु
हे कोटि रूप, हे कोटि नाम !
तुम एक मूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि
हे कोटि मूर्ति, तुमको प्रणाम !

युग बढ़ा तुम्हारी हँसी देख
युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख,
तुम अचल मेखला बन भू की
खीचते काल पर अमिट रेख ;

तुम बोल उठे युग बोल उठा
तुम मौन रहे, जग मौन बना,
कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर
युगकर्म जगा, युगधर्म तना ;

युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक
युग संचालक, हे युगाधार !
युग-निर्माता, युग-मूर्ति तुम्हें
युग युग तक युग का नमस्कार !

दृढ़ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से
तुम काल-चक्र की चाल रोक,
नित महाकाल की छाती पर
लिखते करुणा के पुण्य श्लोक !

हे युग-द्रष्टा, हे युग सृष्टा,
पढ़ते कैसा यह मोक्ष मन्त्र ?
इस राजतंत्र के खण्डहर में
उगता अभिनव भारत स्वतन्त्र !

Os_ओस

Os_ओस

sOhanlAl dwivEdi::सोहन लाल द्विवेदी





















हरी घास पर बिखेर दी हैं
ये किसने मोती की लड़ियाँ?
कौन रात में गूँथ गया है
ये उज्‍ज्‍वल हीरों की करियाँ?

जुगनू से जगमग जगमग ये
कौन चमकते हैं यों चमचम?
नभ के नन्‍हें तारों से ये
कौन दमकते हैं यों दमदम?

लुटा गया है कौन जौहरी
अपने घर का भरा खजा़ना?
पत्‍तों पर, फूलों पर, पगपग
बिखरे हुए रतन हैं नाना।

बड़े सवेरे मना रहा है
कौन खुशी में यह दीवाली?
वन उपवन में जला दी है
किसने दीपावली निराली?

जी होता, इन ओस कणों को
अंजली में भर घर ले आऊँ?
इनकी शोभा निरख निरख कर
इन पर कविता एक बनाऊँ।

badhE chalO_बढे़ चलो

badhE chalO_बढे़ चलो

sOhanlAl dwivEdi::सोहन लाल द्विवेदी














न हाथ एक शस्त्र हो, 
न हाथ एक अस्त्र हो, 
न अन्न वीर वस्त्र हो, 
हटो नहीं, डरो नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो । 

रहे समक्ष हिम-शिखर, 
तुम्हारा प्रण उठे निखर, 
भले ही जाए जन बिखर, 
रुको नहीं, झुको नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

घटा घिरी अटूट हो, 
अधर में कालकूट हो, 
वही सुधा का घूंट हो, 
जिये चलो, मरे चलो, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

गगन उगलता आग हो, 
छिड़ा मरण का राग हो,
लहू का अपने फाग हो, 
अड़ो वहीं, गड़ो वहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

चलो नई मिसाल हो, 
जलो नई मिसाल हो,
बढो़ नया कमाल हो,
झुको नही, रूको नही, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

अशेष रक्त तोल दो, 
स्वतंत्रता का मोल दो, 
कड़ी युगों की खोल दो, 
डरो नही, मरो नहीं, बढ़े चलो, बढ़े चलो ।

prakriti sandEs_प्रकृति संदेश

prakriti sandEs_प्रकृति संदेश

sOhanlAl dwivEdi::सोहन लाल द्विवेदी














पर्वत कहता शीश उठाकर,
तुम भी ऊँचे बन जाओ।
सागर कहता है लहराकर,
मन में गहराई लाओ।

समझ रहे हो क्या कहती हैं
उठ उठ गिर गिर तरल तरंग
भर लो भर लो अपने दिल में
मीठी मीठी मृदुल उमंग!

पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो
कितना ही हो सिर पर भार,
नभ कहता है फैलो इतना
ढक लो तुम सारा संसार!

yugAvatAr_युगावतार गांधी

yugAvatAr_युगावतार गांधी

sOhanlAl dwivEdi::सोहन लाल द्विवेदी














चल पड़े जिधर दो डग मग में 
चल पड़े कोटि पग उसी ओर,
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि 
गड़ गये कोटि दृग उसी ओर, 
जिसके शिर पर निज धरा हाथ
उसके शिर-रक्षक कोटि हाथ,
जिस पर निज मस्तक झुका दिया
झुक गये उसी पर कोटि माथ;
हे कोटिचरण, हे कोटिबाहु! 
हे कोटिरूप, हे कोटिनाम! 
तुम एकमूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि 
हे कोटिमूर्ति, तुमको प्रणाम! 
युग बढ़ा तुम्हारी हँसी देख
युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख,
तुम अचल मेखला बन भू की
खींचते काल पर अमिट रेख;
तुम बोल उठे, युग बोल उठा, 
तुम मौन बने, युग मौन बना, 
कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर 
युगकर्म जगा, युगधर्म तना; 
युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक,
युग-संचालक, हे युगाधार!
युग-निर्माता, युग-मूर्ति! तुम्हें
युग-युग तक युग का नमस्कार!
तुम युग-युग की रूढ़ियाँ तोड़
रचते रहते नित नई सृष्टि, 
उठती नवजीवन की नींवें 
ले नवचेतन की दिव्य-दृष्टि; 
धर्माडंबर के खँडहर पर
कर पद-प्रहार, कर धराध्वस्त
मानवता का पावन मंदिर
निर्माण कर रहे सृजनव्यस्त!
बढ़ते ही जाते दिग्विजयी! 
गढ़ते तुम अपना रामराज, 
आत्माहुति के मणिमाणिक से 
मढ़ते जननी का स्वर्णताज! 
तुम कालचक्र के रक्त सने
दशनों को कर से पकड़ सुदृढ़,
मानव को दानव के मुँह से
ला रहे खींच बाहर बढ़ बढ़;
पिसती कराहती जगती के 
प्राणों में भरते अभय दान, 
अधमरे देखते हैं तुमको, 
किसने आकर यह किया त्राण? 
दृढ़ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से
तुम कालचक्र की चाल रोक,
नित महाकाल की छाती पर
लिखते करुणा के पुण्य श्लोक!
कँपता असत्य, कँपती मिथ्या, 
बर्बरता कँपती है थरथर! 
कँपते सिंहासन, राजमुकुट 
कँपते, खिसके आते भू पर, 
हैं अस्त्र-शस्त्र कुंठित लुंठित,
सेनायें करती गृह-प्रयाण!
रणभेरी तेरी बजती है,
उड़ता है तेरा ध्वज निशान!
हे युग-दृष्टा, हे युग-स्रष्टा, 
पढ़ते कैसा यह मोक्ष-मंत्र? 
इस राजतंत्र के खँडहर में 
उगता अभिनव भारत स्वतंत्र!

jagmag_जगमग जगमग

jagmag (2)_जगमग (2)

sOhanlAl dwivEdi::सोहन लाल द्विवेदी














हर घर, हर दर, बाहर, भीतर,
नीचे ऊपर, हर जगह सुघर,
कैसी उजियाली है पग-पग?
जगमग जगमग जगमग जगमग!

छज्जों में, छत में, आले में,
तुलसी के नन्हें थाले में,
यह कौन रहा है दृग को ठग?
जगमग जगमग जगमग जगमग!

पर्वत में, नदियों, नहरों में,
प्यारी प्यारी सी लहरों में,
तैरते दीप कैसे भग-भग!
जगमग जगमग जगमग जगमग!

राजा के घर, कंगले के घर,
हैं वही दीप सुंदर सुंदर!
दीवाली की श्री है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग!

nav varsh_नववर्ष

nav varsh_नववर्ष

sOhanlAl dwivEdi::सोहन लाल द्विवेदी













स्वागत! जीवन के नवल वर्ष 
आओ, नूतन-निर्माण लिये, 
इस महा जागरण के युग में 
जाग्रत जीवन अभिमान लिये; 

दीनों दुखियों का त्राण लिये 
मानवता का कल्याण लिये, 
स्वागत! नवयुग के नवल वर्ष! 
तुम आओ स्वर्ण-विहान लिये। 

संसार क्षितिज पर महाक्रान्ति 
की ज्वालाओं के गान लिये, 
मेरे भारत के लिये नई 
प्रेरणा नया उत्थान लिये; 

मुर्दा शरीर में नये प्राण 
प्राणों में नव अरमान लिये, 
स्वागत!स्वागत! मेरे आगत! 
तुम आओ स्वर्ण विहान लिये! 

युग-युग तक पिसते आये 
कृषकों को जीवन-दान लिये, 
कंकाल-मात्र रह गये शेष 
मजदूरों का नव त्राण लिये; 

श्रमिकों का नव संगठन लिये, 
पददलितों का उत्थान लिये; 
स्वागत!स्वागत! मेरे आगत! 
तुम आओ स्वर्ण विहान लिये! 

सत्ताधारी साम्राज्यवाद के 
मद का चिर-अवसान लिये, 
दुर्बल को अभयदान, 
भूखे को रोटी का सामान लिये; 

जीवन में नूतन क्रान्ति 
क्रान्ति में नये-नये बलिदान लिये, 
स्वागत! जीवन के नवल वर्ष 
आओ, तुम स्वर्ण विहान लिये!

vandanA kE_वंदना के

vandanA kE in swaron me_वंदना के इन स्वरों में

pUjAgIt_sOhanlAl dwivEdi::पूजा-गीत / सोहनलाल द्विवेदी













वंदना के इन स्वरों में 
एक स्वर मेरा मिला लो।

राग में जब मत्त झूलो
तो कभी माँ को न भूलो,

अर्चना के रत्नकण में 
एक कण मेरा मिला लो।

जब हृदय का तार बोले,
शृंखला के बंद खोले;

हों जहाँ बलि शीश अगणित, 
एक शिर मेरा मिला लो।